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विदा के गीत / अर्चना कुमारी

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इन दिनों मां को फिक्र है बहुत
बड़ी गहराई से नापती है
आंखों के काले घेरे
चेहरे की गुलाबियत
एक्स-रे जैसी आंखें
पढना चाहती है मन
मैं मुस्कुराहटों से खेलती हूं
चालबाज हो गयी हूं
प्रेम की शतरंज खेलकर
कि आजकल कोई खत नहीं लिखता
आदतन ईश्क-ईश्क बुदबुदाती हूं
चालें चलता प्रेयस
झटकता है हाथ नादान कहकर
उसे हर बात से मुकरने की बुरी आदत है
गौने की निश्चित तारीखों के मध्य
छेड़ती हैं सखियां
मैं देखती हूं अपने देह के तिल
जो अनदेखे नहीं हैं
सप्तपदी के सात पद
एक रिश्ता
कितने फेरे लगाएगा मन की
सात सीधे
सात उल्टे कदमों के बाद भी
क्षैतिज नहीं हुआ
प्रेम का वृताकार पथ
और अंतिम प्रेयस चल रहा है
विदा के गीत संग
साथ मेरे
नये की अगुवाई में।