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विदा के समय / सियाराम शरण गुप्त

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जाता हूँ जाने दो मुझको,
हूँ मैं सरित - प्रवाह;
जाकर फिर फिर आ जाने की
मेरे मन में चाह!

बन्धु बाँध रक्खो मत मुझको,
मैं मलयानिल मुक्त;
जा कर ही फिर लौट सकूंगा
नव-नूतन मधु युक्त।

गृह कपोत हूँ मैं, उड़ने दो
मुझको पंख पसार;
नहीं हर सकेगा अनंत भी
मेरे घर का प्यार।

चिंता की क्या बात सखे, यदि
हूँ मैं पूरा वर्ष;
लौट पडूँगा क्षण में ही मैं
ले नूतन का हर्ष।