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विदा गीत / आलोक श्रीवास्तव-२
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तुम चली गई हो
जैसे जाता है वसंत
जैसे पहाड़ों से लौटती हैं चिड़ियाएं
सदा को जैसे सुदूर हो जाती है एक नदी
अब कुछ नहीं है यहां
वही रास्ते हैं, वही मकान
वही पहचाने हुए लोग
समय में बीतता हुआ
यह दैनंदिन का शोक
और वर्षों से निष्पंद पड़े जल पर
एक प्रतिबिंब के हिल जाने सा
यह भाव
तुम तो न जानोगी कभी
जीवन भर क्यों चाहता रहा मैं
पुरानी जगहों में लौटना...
हर बार शुरु करना
एक समाप्त हुई यात्रा ...