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विदा बेला / भारत भूषण अग्रवाल
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पाया स्नेह, पा सकीं न पर तुम विदा-रीति का ज्ञान
पगली! बिछोह की बेला में बिन मांगे ही प्रीति का दान
दो मुझे। कहो इस अन्तिम पल में एक बार ’प्रियतम’ धीमे
पूछो : ’कब लौटोगे वसन्त में? वर्षा में? शारद-श्री में?
शीत की शर्वरी में?’ सरले! मत रह जाओ नतमुख उदास
लाज से दबी। कल जब यह पल होगा अतीत, तब अनायास
मुखरित होगी यह नीरवता, बन व्यथा, वियोगी प्राणों में
तब तुम सोचोगी बार-बार : ’क्यों आँसू में, मुस्कानों में
दुख-सुख की उस अद्वितीय घड़ी को किया न मैंने अमर?’ प्रिये!
यह कसक तुम्हें कलपाएगी : ’क्यों मैंने प्रिय के अश्रु पिये
नयनों से नहला दिया न, संचित किया न क्यों कुछ आश्वासन
इस विरह-काल के लिए हाय! भर आलिंगन, पा कर चुम्बन!