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विदा रोॅ स्वागत गान / शिवनारायण / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
केन्होॅ केन्होॅ स्वप्न सजैलां मन रोॅ सेवाती घन में
हेनोॅ आंधी उठलै कि सब मोती छितरलै ऐंगन में।
ई केन्होॅ छै घड़ी कि हम्में
अपने सें लगौं परैलोॅ छी,
एत्ते कि अपनो घर लागै
हाय, कहाँ ई ऐलोॅ छी?
मधुर दिनोॅ के यादोॅ के दल, जेना धरोहर छै मन
उठलै हवा; झड़ी केॅ कि सबटा जाय बिखरलै ऐंगन में।
नदी किनारा के हौ यादो
लागै एक कहानी छै
लहर-लहर केॅ गिनतेॅ रहवोॅ
की रहलोॅ कुछ मानी छै
शेष कथा सब मधुर मिलन रोॅ व्यथा जगावै छै मन में
हेने उठलै हवा कि सपना जाय बिखरलै ऐंगन में।
चानी केरोॅ रातो लागै-
आगिन केॅ बरसावै छै
तृष्णा के तस्वीरो नाहक
आबेॅ कैन्हें बुझावै छै?
कहाँ मिटैतै जलन? बुझैतै प्यास, झबरलोॅ कानन में?
हेने उठलै हवा कि सपना जाय बिखरलै ऐंगन में।