विदा 1- मैं इंतज़ार में हूँ / पल्लवी त्रिवेदी
कब किसी ने सलीका बताया कि कैसे ली जाती है विदा
प्रेम करने के सौ तरीकों वाली किताब भी नहीं बताती
कि विदा प्रेम का ज़रूरी हिस्सा है
साथी को खुश रखने के नुस्खे तो सहेलियों ने भी कान में फूंके थे
माँ भी यदा-कदा सिखा ही देती समझौते करने के गुर
लेकिन विदा और मृत्यु के बावत कोई बात नहीं करता
जबकि दोनों प्रेम और जीवन का अंतिम अध्याय लिखती हैं
इस तरह विदा लेना और देना मुझे आया ही नहीं
गले लगकर रोना बड़ा आसान और प्रचलित तरीका है
पर मुकम्मल तो वो भी न लगा
गाली बक कर दो तमाचों के साथ भी विदा ली जा सकती है
मगर वह इंसानी तरीका नहीं
क्या होता वो सलीका कि विदाई की गरिमा बनी रहती
तमाम शिकवों के बावज़ूद ?
जैसे पेड़ करते हैं अपने पत्तों को विदा
जैसे रास्ता मुसाफिर को और
जैसे चिड़िया अपने बच्चों को
मुझे न पेड़ होना आया, न रास्ता होना
और न चिड़िया होना
खामोशी से किसी को सुलाकर उससे हाथ छुड़ा लेना एक और तरीका है
पर यह तो ज़ुल्म ठहरा
यशोधरा की खाली छूटी हथेली आंसुओं से भरी देखी थी मैंने
और खामोश होंठों पर एक उदास शिकवा “ सखी वे मुझसे कहकर जाते “
वादा करके न लौटना एक और तरीका हो सकता है
मगर यह क्रूरता की पराकाष्ठा है और
जन्म देता है एक कभी न मिटने वाले अविश्वास को
हांलाकि दोनों तरीकों के मूल में विदा के दुःख को कम करना होता होगा शायद
मैं इस विदा को टालती रही एक मुकम्मल तरीके के इंतज़ार में
और इस बीच एक सुबह देहरी पर रखा पाया
एक गुड बाय का ग्रीटिंग कार्ड
विदाई का एक बदमज़ा तरीका आर्चीज वाले भी बेच रहे थे
सच तो ये कि विदा करना कोई किताब नहीं सिखा सकती
कोई समझाइश विदा को आसान और सहज नहीं बनाती
हर विदाई छाती पर एक पत्थर धर जाती
हर विदा के साथ नसें ऐंठ जातीं, आँखें एक बेचैन काला बादल हो जातीं
हर विदाई के साथ कुछ दरकता जाता
हर विदा के साथ कुछ मरता जाता
कितना टालूं इस विदा को कि
अब वक्त बार-बार चेतावनी अलार्म दे रहा
“ टाइम ओवर लड़की .. तुमसे न हो पायेगा “
हाँ, मुझसे सचमुच न हो पायेगा
कि मरना ही होगा एक बार फिर
ओ गुलज़ार .. जानते हो
सांस लेने की तरह मरना भी एक आदत है
पर अब भी मैं जीवन की आखिरी विदा से पहले
पेड़,रास्ता या चिड़िया होने के इंतज़ार में हूँ...