विदेश में अकेलापन/रमा द्विवेदी
ज़िन्दगी है यहां गाडियों में बन्द,
गाडियां सडक पर तेज से तेज-
रफ़्तार में दौडती हैं।
सडक के किनारों पर लगे पेड,
बीच में सडक,
सडक पर सैकडों गाडियों की-
दौडती कतार,
हां कभी-कभी सिगनल पर-
कुछ पल रुकती हैं,
फ़िर तीव्र रफ़तार में दौडती हैं
अपने गन्तव्य की ओर-
रास्ते में हरी-भरी वादियों को पार करती हुई,
प्रकुति के अनुपम सौन्दर्य को -
नकारती हुई,
दौडती हैं ,सिर्फ़ दौडती हैं,
रुकती हैं अपने कार्यस्थल पर।
ज़िन्दगी भी यहां,
गाडियों की तरह है,
अपने आस-पास से अन्जान,
ज़िन्दगी का ध्येय यहां,
सिर्फ पैसा और काम,
मानव यहां कभी-कभी फ़ुटपाथ पर,
दिखाई देता है रेंगता हुआ,
गाडी के बिना यहां,
ज़िन्दगी जैसे अपाहिज हो,
कुछ नहीं हो सकता,
कुछ भी नहीं हो सकता,
राह पर चलता मानव,
जैसे ग्लैमर के चकाचौंध में,
रास्ता भटक गया हो,
या कोई अजूबा हो,
अपने आप में खोया हुआ,
अपने आस-पास से बेखबर,
चला जा रहा है,चला जा रहा है,
लंबी सडक की तरह बेजान,
जो न गम करती है,
न प्रश्न पूंछती है,
कि मैं अकेली क्यों हूं?
मैं अकेली क्यों हूं??