विद्याभूषण मिश्र / परिचय
संक्षिप्त परिचय
इन्होंने हिन्दी में स्नातकोत्तर तक की शिक्षा प्राप्त की। ये शिक्षक थे। 1946 से लेखन आरम्भ किया। इन्होंने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में एक साथ लेखन किया। हिन्दी में इन्होंने सती सावित्री, करुणांजली, सुधियों के स्वर, मन का वृन्दावन जलता है आदि पुस्तकों की रचना की। इनके गीत मयारू माटी एवं लोकाक्षर जैसी पत्रिकाओं में छपे एवं भोपाल, रायपुर, बिलासपुर के आकाशवाणी केन्द्रों से प्रसारित भी हुए। निराला साहित्य मंडल, चांपा के अध्यक्ष रहे। इनके संपादन में चांपा दर्शन, गीतवल्लरी, पुकार आदि शीर्षक से पुस्तकें प्रकाशित हुईं।
विस्तृत परिचय
आस्था और विश्वास के कवि- पं. विद्याभूषण मिश्र
पं. विद्याभूषण मिश्र उस सहज, सरल और सास्विक व्यक्ति का नाम है जो अमृत महोत्सव के द्वार पर खड़। गीतों की अमृतमयी गंगा से स्वयं तो स्नान कर ही रहा है उसके आनन्द सीकरों से अन्यों को भी तृप्त कर रहा है । मैं भी स्वयं ऐसे सौमाग्यशाली व्यक्तियों में हूँ जो बरसते मेघ के फुहारों की छुअन से तृषा और तृप्ति का अनुभव कर चुका हूँ। मिश्रजी का उदार भाव कोई बंधन या सीमा नहीं मानता । परिचय मात्र काफी है । प्रगाढ़ता का रस वे स्वयं घोल लेते हैं । मिश्रजी से मेरा परिचय ऊपरी तौर पर कुछ ही महीनो का है पर गहराई और विस्तार समीय होकर भी निस्सीम है और निस्सीम है तो है । मेरा नया गीत संग्रह- 'मैं उगते सूरज का साथी' निकला, आशीर्वाद कं लिए बडे भाई राम अधीर को भेजा, उन्होंने 'संकल्प रथ’ में मन-भाव से समीक्षा प्रकाशित की और आदेश दिया कि संग्रह की एक प्रति मिश्रजी को भी भेज दो मैंने एक प्रति भेज दी और चुपचाप बैठ क्या। सप्ताह दस दिन बाद मिश्र जी का पत्र आया । बस यहां से परिचय और परिचय की प्रगाढ़ता शुरू हुई । मिश्रजी ने औघड दानी बनकर आशीर्वाद और शुभकामनाओं श्री वर्षा की पर मैं क्या करूं- अकिंचन की कथा ही छोटी पड़ गई । कभी मिश्रजी का पत्र आता है तो चारों ओर सुगन्धि फैल जाती है रसघार प्रवाहित होने लगती है- मैं तो बस मुग्ध भाव से देखता रहता हूँ ।
मिश्रजी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। है ऊपर से जितने सहज-सरल हैं भीतर से उतने ही संकल्पवान हैं । पिचहत्तर वसन्तो की खट्टी-मीठी सुधियों की धरोहर उनकें पास है जो खोने में पाने का सुख लेती हैं, एक घूंट पीकर सारा मन पनघट को है डालतें हैं। मेंने एक गीत में लिखा-एक प्रश्न उछाला था-
हैं बहुत तम के धुँधलके
और हम बैठें कहीँ पर मौन साधे
फिर कहो यह रोशनी जिससे कहेगी
कौन सूरज सा दहेगा ?
सूर ने लिखा है- 'यह दुविधा पारस नहि जानत, कंचन करत खरौं’ मिश्रजी पर यह बात बहुत ठीक बैठती है, वे पूरे संकल्प और विश्वास के साथ कहते हैं-
अंधियारे को साँपी मैंने
अपने तन-दियने की बाती
ब्याह रचाने को पीडा से
आते है संघर्ष बराती।"
- 'मन ने नहीं समर्पण माना'
संघर्ष मिश्रजी के जीवन की धुरी है संघर्ष की ज्वाला में तपकर ही व्यक्ति कुन्दन सा दमकता है । संसार में पग-पग पर काँच बिखरे है कटीली झाडि़यॉं और ऊँचे पर्वत राह में खडे हैं, अनन्त प्यास लिए मरूस्थल इस पर खड़ा है, संगतियों से ज्यादा विसंगतियां आकुल करती है लेकिन जो व्यक्ति नयनों की गंगा में अपने अन्तर को नहला लेता है दूसरों की पीड़ा के लिए हिम सा गल जाता है, वही सही अर्थों में जीवन को पहचान पाता है, वही व्यक्ति हिमालय सा तन कर ख खड़ा हो हैं कवि कहता है -
'कभी विसंगतियों के आगे, मन ने नहीं समर्पण माना
और
'ज्वाला मैं तप करके माटी, बन जाती पूजा का चन्दन’
पूजा के चन्दन सी आस्था लिए कवि मानता है कि पतझर चाहे सारे पत्र बीन ले लेकिन-
‘पतझर में लुटने का स्वर ही
बन जाता जीवन का गुंजन ।
पतझर में जीवन के गुंजन की कल्पना/आस्था कवि की जिजीविषा का प्रतीक है। नित अभाव के गांव में स्वय झर जाना, फूल सा न खिल पाना मजबूरी नहीं है, समर्पण है, खिलने की अटूट इच्छा है, उत्कट अभिलाषा है, किसी विटप की छाँव में विरमने का भाव कवि के मन में नई स्फूर्ति की कल्पना है, आगे बढने का संकल्प है। कवि बिना मंजिल को जाने भी सीढि़यॉं लांघ रहा है क्यो ? क्योंकि उसे पता है कि सीढि़यां चाहे जितनी भी हो, उसके पार एक मंजिल मुस्करा रही है, इसलिये यह भविष्य की सुनहरी तस्वीर बना रहा है- पर जिसके लिए? शायद हर उस पथिक के लिए जिसमें मंजिल को पानें की उत्कट लालसा है, यदि कवि किसी एक व्यक्ति के लिए, किसी एक चिन्हित व्यक्ति के लिए तस्वीर बनाता तो उसका कैनवास सीमित हो जाता, पर उसकी कल्पना में तो अनन्त आकाश है, यह तो हर किसी की पीड़ा को, दुख-दर्द को रूपांकित करना चाहता है- कवि ससीम से निस्सीम हो जात्ता है और शायद इसीलिए उसके प्रेम के फूल सदा महकते रहते हैं- मुरझाना या खिलना तो सासों की सीमा है, विशेष बात है महकना। कवि का विश्वास देखिए-
अनुशासित मुस्कानों में अब भी अतीत आभा ।
विश्वासों के मौन क्षितिज में छाई अरूणाभा ।।
-'गीत के हैं पंछी चहके'
मिश्रजी की 'स्मृति पीड़ा से बल पाती’ है। यादों की बाती लेकर कवि का मन दीपक सा निरन्तर जलता रहता है । यादे है धरोहर है जो हर स्थिति में व्यक्ति के साथ रहती है । मेरा एक दोहा है-
घर छाँड़ा, छोड़ा शहर, छोडी जग पहचान।
पर सुधियों का क्या करूँ, बैठी बीच मकान ।।
मन-मकान के बीच बैठी सुविधा घर, शहर और जग-पहचान छोड़ने पर भी छूटती नहीं है और वस्तुत्त: सुधियों को कोई भूलकर भी भूलना नहीं चाहता क्योकि तिल-तिल जलना भी दे सुधियां मन-दीपक को नई गति, नई ऊर्जा प्रदान करती है । अभाव और पीड़ा जितनी अधिक होगी, दर्द की उम्र उतनी ही लम्बी हो जायेगी, कवि कहता है -
नित मुस्कान तुम्हारी अविरल, उर-आंगन में है अंकुराती।
कवि मानता है कि अगर सुधियों की थाती न होती तो यह माटी का तन माटी का ही बना रहता, यह तो तुम्हारी स्मृति है कि -
तुमसे ही तन की माटी को कंचन का उदयनान मिला है।
काँटों को सहने के कारण फूलों को सम्मान मिला है।
-‘स्मृति पीडा से बल पाती’
मिश्रजी संवेदनशील कवि हैं, जग भर की पीड़ा को अपना बना लेने की उत्कट आकांक्षा उनमें है। आज जबकि स्वार्थ के झंझानल से सारा परिवेश कम्पित है, पूरा का पूरा देश किरणों की जगह तम पीने को अभिशप्त है, नाव चाहे नई हो पर पतवार तो टुटी और जर्जर है, मझघार दुर्निवार है और मांझी निरूपाय है, हम जाति-धर्म की संकीर्णताआँ में फंसकर एक दूसरे की गर्दनें नापने को तैयार हैं, विजयरण में बढ़ने की जगह हम हार की ओर बढ़ रहे हैं, सब जानते-समझते हुए भी - यह यया हो गया है मेरी पीढी को? क्या हमारे सुख-सौभाग्य की दुलहिन कहारों की पालकी पर बैठकर कभी मंगल गीत नहीं गा पाएगी! नहीं! नहीं!! ऐसा नहीं है कवि जागृत है उसकी चेतना हजार-हजार कंठों से प्रेम-रागिनी गाना चाहती है, वह बहुत ही आशा-विश्वास के साथ, पूरी निष्ठा और आस्था के साथ अपने स्वर को बुलन्दी देता है-
"रोपें बिरवे चलो प्रेम के, जीवन उपवन में।
नए-नए अंकुर उग आएं, माटी के तन में।
श्रम के फूल खिलें मस्तक पर
मौसम लहराए।
सपनों कें चरवाहे गावें
बंशी धुन छाये।
उमड़े प्यार धरा पर क्षण-क्षण, अभिनव गुंजन में ।
रोपें बिरवे चली प्रेम के, जीवन उपवन में।"
-’कंपित सारा परिवेश’
आस्था/विश्वास वडी चीज है पर केवल विश्वास ही सब कुछ नहीं है जव तक कि उसमें कर्म का भाव न हो अगर हाथ में संकल्प और आँखों में नए सपने हो तो - (मेरे एक गीत की कुछ पंक्तियां हैं)
'हाथ में संकल्प, आंखों में नए सपने
आँधियाँ बन का चलो तो वक्त रूकवा दें।"
मिश्रजी का कवि मन भी यही कहता है-
अंतर की गंगा में सारे कडुए कलुष चलो हम धोलें ।
बँधी हुई दुस्तर गाँठों को, सुलझे चिन्तन से हम खोलें ।
०
सस्ता की आरती मिले तो देब बनें मत हम पाषाणी ।
वही कल्पना सही कहाती जो धरती के लिए शिवानी ।
सुविधाओं कें भुजपाशों का, बंधन सभी पहरूवे छोडे़
-कड़ुए कलुष चलो हम धोलें’
यह विडम्बना ही है जिन्हें पूरे विश्वास के साथ हम सत्ता की आरती सौंपते हैं, कुर्सी पाकर वे बढ़ते जाते हैं, फूल पाषाण बन भूल जाते हैं, सत्ता की पीनक में वे अपने स्वार्थ के अलावा सब कुछ भूल जाते हैं; पर कवि की चेतावनी है कि उन ‘पहरूओं’ को सुविधा के भुजपाश छोड़ने ही होंगें।
मिश्रजी आशा और आस्था के कवि हैं । वे मन का अमृत देकर जन जन को सुखी बना देना चाहते हैं -
अनफूलीं हर टहनी फूल से हिले।
अँजुरी भर गंध पवन पीकर मचले।
लीपे हर आँगन को रोशनी यहाँ
जागे हर गलियारा प्राण का जहाँ।
नित सुख के मंत्र जगें पीड़ा के द्वार
दुखियों को हर मौसम बाँटे नित प्यार।
गीतों का नेह भरा घट सदा ढले।
उम्र घटे चिंता की हो दुख की हार।
मन की साधें मत बीमार हों कभी
संतापित पीढ़ी के हों क्षण उससे।"
मिश्रजी के पास एक बड़। सा आईना है जिसमें वे निष्ठुर समाज को उसका सही रूप दिखा देना चाहते हैं । पढ़-लिखकर भी हम स्वार्थ के दानव के हाथों अपना अस्तित्व बेंच देते है आदमी आदमी न रहकर लाशों का व्यापारी बन गया है। परिणय भी उसके लिए व्यापार है । लाचार दुलहिन को या निष्ठुर समाज दहेज की धधकती आग में झोंक देता है । अपना सर्वस्व सौंप देने पर भी नारी की विडम्बना देखिए-
संचित निधि अपने जीवन की लुटा धन्य होती नारी।
थी सुहाग की रात नूपुरों
ने स्वागत के गान रचे
मौन मांग की थी बिंदिया अरू
झुमके दोनों नचे-नचे।
दावानल ने झुलसायी थी, क्षण भर में सुषमा सारी ।
निरपराध नारी का शोषण
जिस समाज में है होता
यहाँ सर्वदा दुर्लभ अमृत-फल
जहॉ मनुज विष है बोता ।
हम बडे गर्व से कहते हैं, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्रदेवत्ता: लेकिन कहॉं पूजी गई नारी, कहॉं रह गए देवता ? सबको दहेज का राक्षस निगल गया, दावानल में सब झुलस गया । कवि की पीड़ा का अन्त नहीं है । हाय रे निष्ठुर समाज। तू अपने आंगन की कली को ही मसलने लगा, अरे तू तो उसका जीवन साथी बना था, तूने तो सात फेरे लेकर जीवन भर साथ चलने का प्रण लिया था क्या हुआ उसका – तू खुद लुटेरा हो गया! धिक्कार है तुझे! याद रख मनुज! जिस परिणय को तू व्यापार बनाना चाहता है, तेरे घर कभी अमृत-फल नहीं लगेंगे, विष-वेल उगेगी तेरे यहा-विषवेल! कवि की तड़फ शब्दों में नहीं समा पा रही है, काश! कोई उसे देख पाता!
मिश्रजी मानव मन के बहुत बडे़ पारखी है । जीवन के लम्बे सफर में उन्होंने अनेक खट्टे-मीठे स्वाद चखें है । उनके पास वे गहरी आखें है जो मानव-मन से उतर कर उसकी सारी सच्चाई को उजागर कर देती है। कवि कहता है-
आज खुशामदखोर अहं के गरल उगलते हैं
करते हैं बाहर से सौदा भीतर बिकते है।
रिश्ते-नाते हुए खोखले मुँह देखा व्यवहार।
उल्लू सीधा यने वालों की है आज कतार।
पल-पल डींगें हांकते अपना यश दुहराते हैं।
चमचे स्वारथ के रस पीने शीश झुकाते है।
किन्तु असंभव है खोटे सिककों का चल पाना।
सबसे कठिन आदमी को है, आज समझ पाना।।
-"दर्पण में दोष नहीं"
व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी पं. विद्याभूषण मिश्र ऐसे सम्पूर्ण कवि हैं जो स्वयं जलकर भी समाज को रौशनी प्रदान करते हैं, स्वयं गरल पीकर संसार को अमृत का दान देते हैं, स्वयं सारी पीड़ा झेलकर सबकी सुख कामना करते हैं- इस पथ ने वे न कभी थकते हैं न कभी निराश होते हैं