विद्युत / शिशु पाल सिंह 'शिशु'
मेघ के अन्तराल से तड़प–तड़प कर, अब तड़िता झाँकी;
देखने वालों ने तब छटा, अनेक आँखों से आँकी।
किसी की सम्मति में उर्वशी हेरती नभ-वातायन से;
बिखरता उसका दिव्य-प्रकाश, नवोढा चंचल चितवन से।
किसी ने सोना लिये सुनार, शून्य में कहीं नहीं देखा;
कसौटी पर ही देखी, सिर्फ़ चमकती कंचन की रेखा।
किसी ने समझा मणिधर सर्प, घुसे हैं गहरी स्याही में;
तैरने लगते हैं जब कभी, मौज से गति मनचाही में।
किसी ने सोचा—पैने तीर पड़े, गंभीर कसमकश में;
दिखाते तमक तमककर तेज, बन्द हैं यद्यपि तरकस में।
किसी के दृष्टि-कोण में अनल-गान गंधर्वों ने गाया;
अन्तरा की उड़ान पर पहुँच, ताल का उजियाला छाया।
किसी ने कहा—अश्रु की धार क्रांति की लिये निशानी है।
पृष्ठ तो पानी का है, मगर आग की लिखी कहानी है॥