विद्युद्गति में / अज्ञेय
विद्युद्गति में सुप्त विकलता खोयी-सी बहती है,
घन की तड़पन में पुकार-सी कुछ उलझी रहती है;
उस प्रवाह से एक कली ही चुन तो लो!
देवी, सुन तो लो यह प्रवास-रजनी क्या कहती है-
क्षण-भर रुक कर सुन तो लो!
'आँखों में- धूमिल व्यथा-ज्वाल, प्राणों में सोते अतल ताल!
सूना पर जीवन-मरु विशाल...
देवी बरसा दो दृष्टि-धार!
'चकवी की सहचर की पुकार, बहती नौका को कर्णधार।
प्रणयी-जीवन की पूर्ति कौन?
- कुवलय-नयनों का अश्रु-भार!
'शैशव को ऊषा का दुलार, बालक को दिनमणि-किरण हार
इस यौवन का क्या पुरस्कार?
- पावस-निशि का अभिसार-प्यार!'
उस की एक कली ही चुन तो लो!
घन-पट पर तड़पन की रेखा चित्र बना जाती है-
देवी! चपला फिर-फिर तुम को कुछ कहने आती है!
क्षण-भर रुक कर सुन तो लो!
मुलमान जेल, 2 दिसम्बर, 1933