विद्रोहिणी / शिरीष कुमार मौर्य
उसने माँ के पेट से फेमिनिज़्म नहीं पढ़ा था
उसके वहां रहते माँ के पेट में कुछ भोजन आता था
सुबह-शाम
और अपमान में पिए हुए ग़ुस्से के कई घूँट
वह माँ का जीवन था
वह जन्मते ही अभागी कहाई
यह पुराकथा है
फिर फिर दोहराई जाए ज़रूरी नहीं
स्कूल जा पाई इतनी बड़भागी थी
बड़ी पढ़ाई का हठ ठाने शहर जाने को अड़ी तो
बिगड़ैल कहाई
पर उसने बिगड़ी बात बनाई
नौकरी मिलना सरल नहीं था मिली
पढ़ते हुए एकाध बार और नौकरी करते दो-तीन बार प्रेम में पड़ी
शादी को मना करती विद्रोही कहलाने लगी थी तब तक
रिश्तों के दमघोंटूं ताने-बाने में जिसे सरलता के लिए अतिव्याप्ति के बावजूद
समाज कह लेते हैं
अभी उसका प्रेम टूटा है जिसे वो अन्तिम कहती है
शादी करने को तैयार थी पर बच्चे के लिए दूर-दूर तक नहीं
टूटकर अलग हो चुका है भावुक प्रेमी
कोई गूढ़ राजनीति नहीं है यह
कि चरम पर पहुँचे और सही राह पर हो
तो विद्रोह से
राज पलट जाते हैं
संसार बदल जाता है
स्त्री विद्रोही हो जाए
तो थम जाता है संसार का बनना
उसे बदलने की नहीं
बचाने की ज़रूरत बचती है ।