विधवा / मदन प्रसाद
बीत गइल बरसात सरद भी बीतल रे सजनी।।
धोअल छप्पर, आसमान में नया रंग अब आइल
तनल चँदोवा जवना में बा जगमग रतन जराइल।
चाँद सुघर वर बनल रात के, मन-ही-मन मुसकाइल
चमकत हँसत हरत मन सभकर, अँखिया देख जुड़ाइल।
खिलल रात का ए रज-गज में, मन के फल फलाइल
मगर करम के मारल हम सखि, हमरो चाँद भुलाइल।
गरम उसांस हमार जाड़ के शीतल रे सजनी।।
हरियर-हरियर जौ-चन्ना सखि-हरियर मटर-खेंसारी
सरसों झूमत फूल सहीते, झूमत रहर बेचारी।
जल में जलकुम्भी, करमी के अलग सजल फुलवारी
फूल फुलाइल बा फुनगी पर निरखि-निरखि हम हारीं।
सरस महीना ए जाड़ा में पड़ल बिपतिया भारी
उजड़ल मन के बाग भरल मंगिया देहलस विधि जारी।
अबहीं उमिरिया अछइत सुखवा बीतल रे सजनी।।
जाड़ा में जर गइल जवानी, लागत मन में आग
नए उमिरिया में धंधकल, सोनवा अइसन रे भाग।
कवन कसूर विधाता कइनी, छिनी कइल मन-राग
जिनगी का पहिला जतरा में, बोलल करिया काग।
अब गइसे सुन्दर वसन्त में, उपजी रे अनुराग
फागुन में बालम बिन केकरा संगवा खेलब फाग।
सुख सपना बन हारल, दुखवा जीतल रे सजनी।।
नइकी-नइकी कहल सभे मिलि, नइकी नाँव धराइल
संइयां का सोहाग से जबले, मंगिया रहल भराइल।
आज सोहागिन बूढ़-बूढ़ भी छाया देख घिनाइल
मांग धोआइल जबसे बिधना, नइकी नाँव छिनाइल।
बजर पड़ो दुनिया पर जहँवाँ अइसन नियम रचाइल।
मेंट गइल सुख साज, दरद ना मेंटल रे सजनी।।