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विधवा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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वह इष्टदेव के मन्दिर की पूजा-सी
वह दीप-शिखा-सी शान्त, भाव में लीन,
वह क्रूर-काल-ताण्डव की स्मृति-रेखा-सी,
वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन —
दलित भारत की ही विधवा है ।

षड्-ऋतुओं का शृंगार
कुसुमित कानन में नीरव-पद-सञ्चार,
अमर कल्पना में स्वच्छन्द विहार —
व्यथा की भूली हुई कथा है,
उसका एक स्वप्न अथवा है ।

उसके मधु-सुहाग का दर्पण,
जिसमें देखा था उसने —
बस, एक बार बिम्बित अपना जीवन-धन,
अबल हाथों का एक सहारा —
लक्ष्य जीवन का प्यारा, वह ध्रुवतारा ?
दूर हुआ वह; बहा रहा है
उस अनन्त पथ से करुणा की धारा ।

हैं करुणा-रस से पुलकित इसकी आँखें,
देखा तो भीगीं मन-मधुकर की पाँखें,
मृदु रसावेश में निकला जो गुञ्जार
वह और न था कुछ, था, बस, हाहाकार !

उस करुणा की सरिता के मलिन पुलिन पर,
लघु टूटी हुई कुटी का, मौन बढ़ाकर
अति छिन्न हुए भीगे अञ्चल में मन को —
दुख-रूखे सूखे अधर-त्रस्त चितवन को
वह दुनिया की नज़रों से दूर बचाकर,
रोती है अस्फुट स्वर में :

दुख सुनता है आकाश धीर, —
निश्चल समीर,
सरिता की वे लहरें भी ठहर - ठहरकर ।

कौन उसको धीरज दे सके ?
दुख का भार कौन ले सके ?
यह दुख वह जिसका नहीं कुछ छोर है,
दैव अत्याचार कैसा घोर और कठोर है ।

क्या कभी पोंछे किसी के अश्रु-जल ?
या किया करते रहे सबको विकल ?
ओस-कण-सा पल्लवों से झर गया
जो अश्रु, भारत का उसी से सर गया ।