विधिना मोहि सखी क्यों कीन्हों / स्वामी सनातनदेव
राग पूरिया, तीन ताल 30.6.1974
विधिना मोहिं सखी क्यों कीन्हों।
अरे निर्दयी! सखी देह करि वृथा विरह-दुख दीन्हों॥
पलक-ओट प्रीतम रहें, रोकत कुल की कानि।
घर वर की चिन्ता लगी, ननद करत हित-हानि॥
हाय स्याम के दरस-परस को औसर अधिक न दीन्हों॥1॥
जो मैं होती बाँसुरी, रहती पिय के हात।
अधरामृत को पान करि पुलकित हो तो गात॥
अमृत पान करि चिन्मयि होती-यह सुहाग कत छीन्हों॥2॥
अथवा होती लकुट ही, रहती पिय के संग।
पल-पल पिय को परस पा बढ़तो नित रस रंग॥
काहे ऐसे सुख-सुहाग को औसर छीन मोहिं दुख दीन्हों॥3॥
जो मैं होती पीत-पट तो का कहों सुहाग।
अंग-अंग पिय को परसि बढ़तो अति अनुराग॥
हाय!हाय! ऐसे सुहाग को औसर लै तैने का कीन्हों॥4॥
होती जो सिखि-पिच्छ मैं रहती पियके सीस।
ऐसो मेरो भाग्य लखि उर सहमाते ईस॥
ऐसी कृपा न करि काहे तू मोहिं वृथा प्रमदा-तनु दीन्हों॥5॥
जो मैं होती धेनु तो रहते प्रियतम साथ।
पुनि-पुनि प्यार-दुलार करि पीठ फेरते हाथ॥
आपुहि दुहि-दुहि हिय हुलसाते, काहे यह सुख छीन्हों॥6॥
कहा कहों हिय की व्यथा, वृथा मिल्यौ यह देह।
मन की मन ही में रही, निभ्यौ न पूरो नेह॥
मेरे मन को भाव भरे मतिमन्द! न तैने नैकहुँ चीन्हों॥7॥