भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विधि-विधान / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अकलित कुसुम ललित पल्लवें में मिले,
भावुकता भूल-सी विलोके भाल-अंक में;
समझे तिमिर में अलोचनता लोचन की,
निवसे अकिंचनता कंचन की लंक में।
'हरिऔधा' विधि की है वंकता विदित होती,
पाए गये रंकता करंकी भूत रंक में;
अवलोके सुरसरि मंजु अंक को सपंक,
कलुष कलंक देखे मानस-मयंक में।
कुल-लाल होते हैं अकाल काल-कवलित,
सेंदुर विपुल बालिका का धुल जाता है;
लाखों मालामाल, लाखों पेट हैं न पाल पाते,
लाखों सुखी, लाखों का कपाल कलपाता है।
'हरिऔधा' देव-कुल होता है दलित नित,
फूला-फला दानव का दल दिखलाता है;
अबुधा-अबुधाता विधान है बताता यह,
विबुध भले ही बने बुध न विधाता है।