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विनयावली(राग धनाश्री )/ तुलसीदास

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विनयावली(राग धनाश्री)
(85)

 मन! माधवको नेकु निहारहि।
 
सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों, छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि।।

सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि।

रंजन संत, अखिल अघ-गंजन , भंजन बिषय-बिकारहि।।
 
जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयेा चहै भव-पारहि।
 
तौ जानि तुलसिदास निसि-बासर हरि-पद-कमल बिसारहि।।

(86)

इहै कहृयो सुत! ब्ेाद चहूूँ ।

श्रीरघुवीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ।।
 
जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।

सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तुउ भजन करत अजहूँ।।

जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।

हरि -पद-पंकज पाइ अचल भइ, करम-बचन-मनहूँ।।

करूनासिंधु, भगत-चिंतामनि, सोभा संवतहूँ।।

और सकल सुर, असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ।।
 
सुरूचि कह्यो सेाइ सत्य तात अति परूष बचन जबहूँ।।
 
तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ।।