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विनयावली / तुलसीदास / पद 201 से 210 तक / पृष्ठ 3

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पद संख्या 205 तथा 206

(205)
जेा न भज्यो चहै हरि-सुरतरू।
तौ तज बिषय-बिकार, सार भज, अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करू।
 
सम, संतोष, बिचार बिमल अति, सतसंगति, ये चारि दृढ़ करि धरू।
काम-क्रोध अरू लोभ-मोह-मद, राग-द्वेष निसेष करि परिहरू।।
 
श्रवन कथा, मुख नाम, हृदय हरि सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरू।
नयननि निरखि कृपा-समुद्र हरि अग-जग-रूप भूप सीताबरू।।

इहै भगति, बैराग्य यह, हरि-तोषन यह सुभ ब्रत आचरू।
तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरू।।

(206)

नाहिंन और कोउ सरन लायक दूजो श्रीरधुपति -सम बिपति -निवारन।
काको सहज सुभाउ सेवकबस , काहि प्रनत परप्रीति अकारन।1।

 जन-गुन अलप गनम सुमेरू करि, अवगुन कोटि बिलोकि बिसारन।
 परम कृपालु , भगत -चिंतामनि , बिरद पुनीत, पतितजन-तारन।2।

सुमिरत सुलभ, दास -दुख सुनि हरि चलत तुरत , पटपीत सँभार न ।
 साखि पुरान-निगम-आगम सब, जानत द्रुपद-सुता अरू बारन।3।

जाको जस गावत कबि-कोबिद, जिन्हके लोभ-मोह , मद -मार न।
 तुलसिदास तजि आस सकल भजु, कोसलपति मुनिबधू- उधारन।4।