विनोद, तुम्हीं बस हो सकते थे / प्रवीण कुमार अंशुमान
प्रमुदित होकर
उल्लास के संग
भावभंगिमा व एहसास के संग
तुम ही तो बस
जी सकते थे
विनोद, तुम्हीं बस हो सकते थे;
उच्च शिखर पर
होकर विन्यस्त
ध्यान किए तुम
सदा रहकर भी व्यस्त
तुम ही सब कुछ
अस्त-व्यस्त कर सकते थे
विनोद, तुम्हीं बस हो सकते थे;
चकाचौंध में हर व्यक्ति
कहीं न कहीं खो जाता है
जीवन-यात्रा में हर कोई
कभी न कभी रह-रहकर सो जाता है
पर ऊहापोह के बीच भी
प्रखर तुम्हीं तो हो सकते थे
विनोद, तुम्हीं बस हो सकते थे;
मायाजाल से कब कौन
कहाँ कभी भी मुक्त हुआ!
पर तेरे प्रज्ञा के प्रकाश में
रोशन हुआ तेरा जग सारा
तुम्हीं ज्योति की एक अलख
यहाँ देख जगा सकते थे
विनोद, तुम्हीं बस हो सकते थे;
इतना दुरूह
ये कृत्य होता है
खुद की अभिलाषा
मन में जब घर करता है
तुम्हीं तो जागकर
प्रीत का मीत बन सकते थे
विनोद, तुम्हीं बस हो सकते थे;
शांति का द्वार
तुमने खोल दिया था
ओशो का दूत बनकर
सबके हृदय को झकझोर दिया था
अहंकार को कर विसर्जित
तुम्हीं तो बस चल सकते थे
विनोद, तुम्हीं बस हो सकते थे;
बेहोशी के जीवन में
देखो यहाँ सब चलते हैं
“संतुष्ट हो गया मन मेरा”
ये कभी नहीं वे कह सकते हैं
तृप्त आँखों से इस जीवन को
तुम्हीं तो बस पी सकते थे
विनोद, तुम्हीं बस हो सकते थे ।