विपत्तियां दौड़ रही हैं / प्रभात कुमार सिन्हा
विपत्तियाँ सोती नहीं हैं
अपने महल से निकलती हैं और
विघ्नरहित मार्ग पर द्रुतगति से निकल पड़ती हैं
सबसे पहले पहुंचती हैं उन घरों में
जहाँ आज भात रांधा नहीं गया है
ऐसे में कविता लिखकर
सुखकर निद्रा में लहालोट हो जाने से
हीन संस्कारों से ग्रस्त हो जाते हैं कवि
विपत्तियों के गमन-मार्ग में कवि का कंटक बनना ही
उन्हें लोक-वंदनीय बना सकता है
विघ्न के बेड़ों का दंभ तोड़ने के लिये
कवि को योद्धा बनना ही होगा
देखो! विपत्तियाँ किस तरह
अबाधित बाघिन जैसी दौड़ लगा रही हैं
अन्याय का जख़ीरा कांख में दबाये वह
अपने धृष्ट पांव फैला रही है
ऐसे में दैहिक-उच्छवास के प्रति रम्य-भाव से
बिल्कुल सन्यासियों की तरह
मुक्त होना होगा कवियों को
पृथ्वी को खुला बंदीगृह बनने देने से
हरहाल में रोकना ही होगा
विपत्तियाँ दौड़ रही हैं अहर्निश
ऐसे में इन्हें रोकने के लिये
कविता के एक-एक शब्द को गढ़कर
हथौड़ा बनाना होगा।