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विपथगा गंगा / आभा पूर्वे

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माँ गंगे
तुम्हें त्रिपथगा लोग कहते हैं ।
इन्द्रब्रह्म की इन्हीं तीन धाराओं के कारण
या कि किसी और कारण ।
हमारे ऋषि तो यही कहते हैं कि
तुम्हारी एक धार
स्वर्ग की ओर गयी है
दूसरी भूमि को स्वर्ग बनाती है
और तीसरी पाताल लोक में प्रवेश कर
वहाँ के प्राणियों को मोक्ष देती है
अधोगंगा बन कर ।

माँ, तुम्हारी जन्मकथा ही
लोक का कल्याण करनेवाली है
जगत को मोक्ष देनेवाली है ।

हे मां गंगे
तुम तो जगतजननी हो
जगततारिणी भी
फिर ऐसा क्यों होता है कि
तुम्हारी छलछल-कलकल करती लहरें
अचानक ही
प्रलय को आमंत्राण देने लगती हैं ?
और फिर चारों तरफ
विनाश का ताण्डव
शुरु हो जाता है ।

पर्वत रेत बनते नजर आते हैं
वृक्ष जैसे झरते हुए पत्ते
धारा में दहते मकान
जैसे कुएँ में गिरते पत्ते
और उफनती हुई धाराएँ
आसन बना लेती हैं
सेतुओं को,
राजपथों को
पगडंडियों को ।

सब कुछ समाने लगते हैं
तुम्हारे उदर के नीचे
और जब
उतरता है तुम्हारा क्रोध
होता है मन शांत
तब कहीं कुछ नहीं होता
होता है, तो बस
पर्वत के माथे पर
उसकी छाती पर
उसकी बाहुओं पर
पैरों पर
केवल आदमी की लाशें
कंकालों का साम्राज्य ।

माँ, तुम्हारा यह उन्माद
काल को भयभीत करने वाला है
भय को भी भय देने वाला ।

तुम्हारे इस उन्माद से
काँपती रहती है धरती
देवताओं के गिरते हैं घर
और इतना ही नहीं
बह जाते हैं तुममें
देवता भी निरुपाय
अनास्था के उड़ते रहते हैं गिद्ध
यहाँ-वहाँ, सारी जगहों पर ।

एक करुण क्रन्दन
एक भयानक चीख
फिर घनघोर सन्नाटा
और सब के बीच
माँ, तुम्हारा वेग काँपता रहता है
क्रोध से
या करुणा में
कौन कहे ।

जैसे समाधिस्त योगी की सांसें
आग की लपटों में
बदल जाए
जैसे चन्दन की शीतलता में
लपटों की लहर समा जाए
जैसी चाँदनी रात
बैशाख-जेठ की लू बरसाने लगे
जैसे अमृत से
हलाहल की ज्वार उठने लगे
ऐसा ही हो जाता है तुम्हारा रूप
जब तुम उग्र होती हो
उन्मादिनी होती हो ।
हे माँ
काल के कंधे पर सवार हुई
हाँफती-भागती जाती हो ।
एक हरी-भरी दुनिया
मरघट की राख में समा जाती है
हजारों-हजार वर्षों के लिए
छोड़ जाती हो
अपने पीछे
काँपती हुई हवाएँ
रोती हुई दिशाएँ
कलपते हुए पर्वत
बिलखते हुये जंगल
और पछाड़ खाती नदियाँ ।

माँ गंगे
जब तुम होती हो उन्मादिनी विपथगा ।
जब लोक संस्कृति का उच्छेद होता है
नीति की गर्दन दबाई जाती है
प्रकृति की मर्यादा टूटती है ।

आज से हजारों-हजार वर्ष
जब गंगा बहुत शांत थी
कहते हैं
अयोध्या के राजा जितशत्राु के
पुत्रा सगर थे जिनके ही पुत्रा थे जद्दु कुमार
वही जद्दु
अपने सगे संबंधियों के साथ
कैलाश पर घूमने गये थे
फिर कैलाश की सुरक्षा के लिए
उसके चारों ओर
खाई खोद डाली
और उतार दिया उसमें गंगा को
धरती को फोड़ कर
अपने दण्ड रत्नों से ।
फिर क्या था
गंगा का पानी
धरती के नीचे
नागलोक तक पहुँच गया ।
नागों का दिल दहला
और नागराज का वैसा ही क्रोध
रोका सगरपुत्रों को
लेकिन कब रुकने वाले थे
अभिमानी सगरपुत्रा ।

फिर क्या था
नागराज खड़ा हुआ
शाप उन्हें देने को
कि सारे ही सगरपुत्रा भष्म हो गये
शापित करने के पूर्व ही
ज्ञात हुईं सारी ही बातें तब
राजा सगर को
दुखित मन से भेजा पौत्रा भगीरथ को
आदेश दिया
जैसे हो
गंगा को सागर में ला कर
गंगा की धारा को शांत करो !
भागीरथी ने गंगा को
शांत किया
तब से ही हे माता गंगा
तुम भगीरथ कहाती हो
और तुम जाद्दवी भी हो
क्योंकि धरती पर
जद्दु ने ही तुमको दोबारा उतारा था ।

हे माता गंगे
कितनी कथाएँ हैं तुम्हारी
धरती पर आने की
लेकिन यह सच है कि
तुम्हें जब-जब भी
सगरपुत्रों ने
छेड़ा है, फोड़ा है
तुमने धारण किया है रूप विकट
और बहती रही हो उन्मादिनी बन
धरती डूबी है
तुम्हारे जलप्रलय में
हे माँ गंगे ।