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विपद की आँधी आती है / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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विपद की आँधी आती है
तो मन घबरा सा जाता है
बहुत तो रह जाते हैं मौन
सहारा देने वाला कौन,
उमड़ कर अन्तर का तूफान
निकल बाहर आ जाता है
तो मन घबरा सा जाता है
वेदना बढ़ती ही जाती
रे, चिंता सिर चढ़ती ही जाती
असल में यही समय है जिसमें
पौरूष आँका जाता है
तो मन घबरा सा जाता है
जिसी पर रहता है विश्वास
उसीसे होता हृदय हताश
बिना फूके ही कदम उठाने वाला धोखा खाता है
तो मन घबरा सा जाता है
किया करता है जितना गौर
उलझती जाती उलझन और
ठौर के बदले में ठोकर
आसानी से पा जाता है
तो मन घबरा सा जाता है
चलेगा जो न कलेजा थाम
चलेगा कभी न उसका काम
यही है एक राह इन्सान
ठिकाने पर आ जाता है
तो मन घबरा सा जाता है