विपुल इस पृथ्वी का मैं / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
विपुल इस पृथ्वी का मैं जानता ही क्या हूं !
देश देश में कितने नगर हैं, कितनी है राजधानियाँ-
मनुष्य की कितनी हैं कीर्तियाँ,
कितने है गिरि सिन्धु मरु, कितनी है नदियाँ,
कितने हैं अज्ञात जीव, कितने हैं अपरिचित पेड़-पौधे-
रह गये सब अगोचर में।
विशाल है विश्व का आयोजन ;
मन को वह घेरे ही रहता है प्रतिक्षण।
इसी क्षोभ में पढ़ा करता हूं ग्रन्थ भ्रमण वृत्तान्त के
अक्षय उत्साह से
जहाँ भी पाता हूं चित्रमय वर्णन की वाणी
बटोर लाता हूं।
ज्ञान की दीनता अपूर्णता जो भी है मन में
पूरी कर लेता हूं भिक्षा लबध ज्ञान से।
मैं हूं पृथ्वी का कवि,
जहाँ जितनी भी होता है ध्वनि,
मेरी बाँसुरी के सुर में उसी क्षण
जाग उठती है उसकी प्रतिध्वनि,
इस स्वर साधना में पहुंची नहीं बहुतों की पुकार
इसी से रह गई दरार।
अनुमान और कल्पना में धरित्री का महा एकतान
पूर्ण करती रहती है निस्तब्ध क्षणों में मेरे मेरे प्राण।
दुर्गम तुषारगिरि असीम निःशब्द नीलिमा में
अश्रुत जो गाता गान,
मेरे भेजा है निमन्त्रण उसने बार-बार।
दक्षिण मेरू के ऊपर जो अज्ञात तारा है
महा जन शून्यता में रात अपनी बिताता वह,
उसने अर्ध-रात्रि में मेरी अनिद्रा का किया है स्पर्श
अनिमेष दृष्टि से अपूर्व आलोक में।
सुदूर का महाप्लावी प्रचण्ड निर्झर
मेरे मन के गहन में भेजता रहता है स्वर।
प्रकृति के ऐक्यतान स्रोत में
नाना कवि उँड़ेलते हैं गान नाना दिशा से;
उन सबके साथ मेरा है इतना ही योग
मिलता है संग सबका, पाता हूं आनन्द भोग,
गीत भारती का मैं पाता हूं प्रसाद
निखिल के संगीत का स्वाद।
सबसे दुर्गम जो मनुष्य है अपने अन्तराल में
उसका कोई परिमाप नहीं वाह्य देश काल में।
वह है अन्तरमय,
अन्तर मिलाने पर ही मिलता है उसका अन्तर परिचय।
मिलता नहीं सर्वत्र उसका प्रवेश द्वार,
बाधा बनी हुई है सीमा रेखा मेरी
अपनी हीजीवन यात्रा की।
किसान चलाते हल खेत में
जुलाहे चलाते ताँत घर में बैठ
बहु दूर प्रसारित है इनका कर्म भार
उसी पर कदम रख चलता है सारा संसार।
अतिक्षुद्र अंश पर उसके सम्मान के निर्वासन में
समाज के उच्च मंच पर बैठा मैं संकीर्ण वातायन में।
कभी कभी गया हूं दूसरे मुहल्ले के प्रांगण तक
नहीं थी शक्ति किन्तु भीतर प्रवेश करने की।
जीवन से जीवन के योग बिना
कृत्रिम पण्य में व्यर्थ हो जाता है गीत का द्रव्य सम्भार,
इसी से मान लेता हूं मैं
अपने सुर की अपूर्णता की निन्दा को।
मेरी कविता, मैं जानता हूं,
गई है विचित्र मार्ग से, फिर भी वह
हो न सकी सर्वत्रगामी।
किसान के जीवन से संयुक्त है जो जन,
मन वचन कर्म से सच्ची आत्मीयता जिसने की है अर्जन,
जो है धरणी की मिट्टी के निकटतम,
उस कवि की वाणी सुनने की
कान बिछा रखे हैं मैंने आज।
साहित्य के आनन्द भोज में
स्वयं न दे सका जो, नित्य रहता मैं उसी की खोज में।
यही सत्य हो,
भाव भ्ंगी से रिझाकर न दूं धोखा किसी दृष्टि को।
सत्य का मूल्य बिना दिये
करना साहित्य की ख्याति चोरी,
अच्छी नही, अच्छी नहीं, नकली है वह शौकीनी मजदूरी।
आओ कवि, अख्यात जन के
निर्वाक मन के।
हृदय की वेदना का उद्वार करो-
प्राणहीन इस देश में गान हीन परिवेश में,
अवज्ञा के ताप से शुष्क निरानन्द मरूभूमि को
अपने रस से परिपूर्ण कर दो आज तुम।
भीतर है उत्स उसका अपना जो
उसे खोल दो आज तुम।
साहित्य की ऐक्यतान संगीत सभा में वे भी सम्मान पायें
जिनके पास केवल एकतारा हो-
मूक हैं जो सुख दुःख में,
नतमस्तक स्तब्ध जो हैं विश्व के सामने।
हे गुणी, पास से जो हैं दूर, उनकी मैं सुनूं वाणी।
हो जाओ तुम उनके अपने जन,
तुम्हारी ख्याति में ही उन्हें मिल जाय अपनी ख्याति, -
करूंगा मैं बारम्बार
तुम्हें विनम्र नमस्कार।
‘उदयन’
प्रभात: 21 जनवरी, 1941