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विभागान / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
आओ, हम सब मिल कर गाएँ, एक गीत जो भूल गए हैं
सारी ही वसुधा कुटुम्ब है, एक तत्व में सभी लीन हैं
प्रेम-दया से जो हैं सूने, धरती पर वे बहुत दीन हैं
झूले पर झुलना था लेकिन सूली पर हम झूल गए हैं ।
सबसे बड़ा धर्म है मानव, मानव से कुछ नहीं बड़ा है
इसीलिए तो देव-पितर सब इसी रूप में आते-जाते
इसी रूप में सृष्टि नियन्ता गीता तक हमको सिखलाते
इसी धर्म के बलबूते पर अखिल विश्व निद्र्वन्द्व खड़ा है ।
सत्कर्मों से धरा-सृष्टि यह मणि-सी ज्योतित दपदप है
कुछ भी इसे जला ना पाए, और गला ना पाए
छेद कौन सकता है इसको, आ कर तो समझाए
नभ-वायु पर तिरता, थल पर खमखम, जल में छपछप है।
जिससे रातें मणि-सी चमके, लाना है हमको वह भोर
यह मत देखो छाई जाती श्याम घटा नभ में घनघोर ।