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विभिन्न कोरस / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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एक

पृथ्वी में बहुत दिन जीवित रहती है हमारी आयु
दिनमान सुनते हैं मृत्यु के बाद

मन की आँख बन्द किये नींद में सोकर
हो सकता है दुर्योग से तृप्ति पाये कान,
ऐसा ही एक दिन महसूस किया था,
आज बहुत क़रीब वही घोर घनाया हुआ है
जितनी ऊँची दीवार या जितना गट्ठा
उतने ही अधिक गुनाह भरे काम
करते जाते हैं, घर से उचट कर संतापित मन
विभीषण, नृसिंह से अभ्यर्थना करते
भोर के भीतर से शाम गुज़र जाती है,

रात की उपेक्षा कर पुनराय भोर में
लौट आता है, फिर भी उसका कोई बास स्थान नहीं है,
फिर उस पर विश्वास किए बनाया है घर
बहुत पहले एक दिन-कौर खाने तक को जब नहीं था
फिर भी माटी की ओर मुख किये पृथ्वी में धान
रोपते रहे-दूसरी सब बातों को भूलकर
मन उसका चिन्ताओं की दुनिया में भटक कर
थोड़ी-सी रोशनी से बड़ी-बड़ी चिन्ताओं को जीतकर
कहीं भविष्य की ओर-पीछे खोने को कुछ नहीं के बीच
एक ख़ामोशी उतर आयी है हमारे घरों में।

हम लोग तो बहुत दिन लक्ष्य धरे शहरों में चलते गये
काम करते गये पैसा कमाते गये।
वोट देकर शामिल कर लिये गये जनतंत्र में
ग्रन्थों को ही सत्य मानकर
सहधर्मियों के साथ जीवन के अखाड़े मंे उतर पड़े
साक्षरों के अक्षर की तरह
मानकर बहुत पाप कर, पाप कथा उच्चरित करके,
विश्वास भंग हो जाने पर भी जीवन में यौन एकाग्रता
नहीं भूला, फिर भी कहीं कोई प्रीत नहीं इतने दिन पर भी
शहर के प्रमुख पथों के मोड़-मोड़ पर नाम खुदे हैं
एक मृत की देह दूसरे शव का आलिंगन किये-
आतंक से ठंडा पड़कर या फिर किसी और बात पर मौत के क़रीब
हमारा अनुभव, ज्ञान, नारी, हेमन्त की पीली फ़सल में
इतस्ततः बीत जाता है अपने-अपने स्वर्ग की खोज में
किसी के मुख पर दो शब्द नहीं-उपाय नहीं है कहकर
स्थिति बदलने की चाह में उसी स्थिति पर
रह जाते हैं, शताब्दी के अन्त तक ऐसे आविष्ट नियम
उतर आते हैं, शाम के बरामदे से सारे जीर्ण नर-नारी
तकते रहते हैं उतरती धूप के पार सूर्य की ओर
खण्डहीन मंडल की तरह, काँच की तरह के।

दो

पास में मरु की तरह महादेश बिखरा हुआ है
जितनी दूर तक आँख देखती है-अनुभव करता हूँ
फिर उसे समुद्र का तीक्ष्ण प्रकाश मानकर
हमारे जँगले पर बहुत से लोग
देखते रहते हैं दिनमान, नफ़रत से
उनके मुख प्राण की ओर देखकर लगता है
शायद वे समुद्र का स्वर सुन रहे हों,
भयभीत मुखश्री पर ऐसा अनन्य विस्मय-
मिला हुआ है। वे सब बहुत दिनों हमारे देश में
घूमे-फिरे शारीरिक वस्तु की तरह
पुरुष की हार देख गये वास्तविक देव के साथ रण में,
या फिर यथार्थ को जीत लिया प्रज्ञावश,
या शायद देव की अजय क्षमता-
या खुद उसकी क्षमता भी इतनी अधिक कि
सुनता गया है बहुत दिनों हमारे मुँह का हिलना
फिर भाषण समाप्त होता है ज़ोरदार तालियों के साथ।
ये लोग, वह सब कुछ जानते हैं।
हमारे अंधेरे में परित्यक्त खेतों की फ़सल
झड़ गये हैं, अपरूप हो उठते हैं फिर
विचित्र छवि के माया बल से।
बहुत दूर नगरी की नाभि के भीतर आज भोर में
जो थका नहीं उनका अविकार मन
नियम से उठकर काम करते हैं-
परिचित स्मृति की तरह रात में सोते हैं
तभी से कलरव, छीना-झपटी, अपमृत्यु, भ्रात-युद्ध
अन्धकार संस्कार, ब्याज स्तुति, भय, निराशा का जन्म होता है।
तब समुद्र पार से स्मृति चक्षु रूपी नाविक आते हैं।
ईश्वर से अधिक स्वर्णमय
आक्षेप में प्रस्तुत होता है अर्ध नारी स्वर
तराई से लेकर बंग सागर तक
सुकुमार छाया डालकर सूर्य मामा के
नाविक की लिविडो को रेखांकित करते हैं।

तीन

घास के ऊपर से बह जाती है हरी हवा
या घास ही हरी होती है।
या कि नदी का नाम मन में लेने पर चारों ओर प्रतिभासित
हो उठती है नदी-
जो दिखाई देती है शाम तक,
असंख्य सूर्यों की आँख में तरंग के आनन्द से
दायें और बायें लोटकर
देखता रहता हूँ मनुष्य का दुःख क्लान्ति, दीपित, अध्ःपतन की सीमा
साल उन्नीस सै बयालीस में टकराकर नई गरिमा से एक बार फिर
पाना चाहता है, धुआँ रक्त, अन्ध अन्धकार के गह्वर से निकलकर
जितनी घास है उससे भी अधिक लड़की,
नदी से भी अधिक उन्नीस सौ तैंतालीस, चवालीस में पुरुषों का हाल, उत्क्रान्त है
मिसाईल के ऊपर धूप में नीलाकाश में दूधिया हंस
हिन्द सागर छोड़कर उड़ जाते हैं झट समुद्र की चाह में-
मेघ की बूँद की तरह स्वच्छ लुढ़कते
साफ़ हवा काटकर वे पंख वाले पक्षी, फिर भी,
वे आये हैं सहसा धूप में पथ में अनन्त पारुल(एक फूल) से
स्यात का शुचिमुख खिल उठता है उनके कंधे पर
नीलिमा के नीचे,
अनंत में जागरूक जनसाधारण आज चलते हैं?
द्वेष, अन्याय, रक्त, उकसाने, कानों पर घूँसे और डर
चाहा है प्यार भरा घर, बिना चोरी ज्ञान और प्रणय?
महासागर के जल कभी क्या सत्जिज्ञासा की तरह हुई है स्थिर-
अपने ही पानी के ग़ाज पर
भीड़ को पहचाना था तनुरा नीलिमा के नीचे?
नहीं तो उच्छल सिन्धु मिटता है?
तब भी झूठ नहीं: सागर की रेत, पाताल की स्याही उड़ेल
समय सुख्यात गुण से अन्ध होकर, बाद में आलोकित हो जाए।