विभीषण का आगमन / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
सुनकर करुण विलाप गौतमी-गंगा द्रवित हुई थी।
धार-धार रो उठी, चन्द्रिका सकरुण उदित हुई थी।
उसी समय लंकेश विभीषण गंगा के तट आया।
पुत्र और परिजनों सहित डेरा तट निकट लगाया।
बैठे थे सानन्द चन्द्रिका में सब अति हर्षित थे।
पुण्य दान गौतमी स्नान हित भाव पवित्र अमित थे।
गंगा जी की धार-धार पर पुण्य परम दर्शित था।
सकल पाप-पुजों के क्षय हित धर्म-कर्म संचित था।
तभी अचानक वैभीषणि को करुण विलाप सुनाया।
आह! आह! की हृदय-विदारक सुन कराह अकुलाया।
धर्म-निष्ठ वैभीषणि झटपट दिया उस दिशा में चल।
तड़प रहा था जहाँ वेदना से पीड़ित मणिकुण्डल।
दृश्य निरख दारुण विलाप करुणा के घन छाये थे।
मणिकुण्डल को देख आँख से अश्रु छलक आये थे।
हाय! हाय! कर उठा हृदय था कहो कौन हो भाई?
किस पापी ने हाय! तुम्हारी ऐसी दशा बनायी?
मैं हूँ वणिक भौनपुर का मणिकुण्डल कहलाता हूँ।
माँग रहा हूँ मृत्यु राम से किन्तु नहीं पाता हूँ।
आप कौन हो बन्धु के मूर्त रूप लगते हो।
कहो रात्रि में एकाकी क्यों तट विचरण करते हो?
नहीं-नहीं हे बन्धु। अकेलर आया नहीं इधर हूँ।
गंग स्नान के लिए सदल लंका का सजकुँवर हूँ।
ठहरो मैं निज पिता विभीषण को लेकर आता हूँ।
दारुण व्यथा आपकी उनको जाकर बतलाता हूँ।
वे लंकेश्वर हैं महान गंण-वैभव से मण्डित हैं।
वेद शास्त्र मर्मज्ञ, भक्त, सद्गुरु के गुरु पण्डित हैं।
वे उपाय उत्तम कोई हमस ब को बतलायेगें।
जिससे दुखःदर्दों के सकंट क्षण में छट जायेंगे।
वैभीषणि क्या स्वयं धर्म ही मानों बोलरहा था।
मणिकुण्डल में नयी चेतना क्षण-क्षण घोल रहा था।
वैभीषणि है मिला कि गंगा मरूथल में लहरायी।
या कि तृषाकुल ने शीतल पीयूषी धारा पायी।
सुना विभीषण ने सुत से झट चला दर्शनोत्सुक हो।
वत्स! व्यथा कुल की सेवा में चलकर के प्रस्तुत हो।
पर सेवा उपकार मनुज का सबसे बड़ा धरम है।
इससे बढ़कर कहाँ मनुजता का शृंगार परम है?
अगर किसी का हित साधन हो आपने इस जीवन से।
तो न मोह करना तिलभर भी माटी के इस तन से।
सत्त्वर चले विभीषण सेवा हित समेत दल बल के।
'दूर करूँ-दर्द किस तरह मैं प्रिय मणिकुण्डल के?
मणिकुण्डल की देख दशा व्याकुल हो गया विभीषण।
अश्रुधार वह चली, मग्न हो चला हृदय क्षण प्रति क्षण।
दोनों विगलित हुए धर्म का हृदय फटा जाता था।
हाय! हाय! कर उठी दिशाएँ कुछ न कहा जाता था।
" हे प्रणम्य धर्मावतार! अविकार सासुख धारी।
सत्य-धर्म के व्रती! दशा यह कैसे हुई तुम्हारी?
कही कथा अति आर्त विभीषण से सब मणिकुण्डल ने।
किया प्रभावित उर-अन्तर तक धर्म-धैर्य उज्ज्वल ने।
विस्मय में रह गया विभीषण अति विशेष यह नर है।
धर्म-पुत्र धरती पर पावन जो सदैव अक्षर है।
अरे मनुजता के मणिकुण्डल तेरा अभिनन्द है।
आर्य सुसंस्कृति के किरीट तुझको सौ बार नमन है।
वत्स! तुम्हारे धर्म-धैर्य से मैं अपार हर्षित हूँ।
तात! विशल्यकारिणी से मैं भली-भांति परिचित हूँ।
जिसे पवनसुत द्रोणाचल से ले समूल आये थे।
जिसने प्राण लक्ष्मण के क्षणभर में लौआये थे।
आज उसी संजीवनि से मैं तुमको ठीक करूँगा।
अपने अनतर्मन में सुख्स का नव्य प्रकाश भरूँगा।
वैभीषणि को भेज मँगायी संजीवनि पल भर में।
महाकाल का किया स्मरण ली बूटी अपने कर में।
रखी वक्ष पर मणिकुण्डल के संजीवनि जिस पल थी।
अंग-अंग जगमगा उठे सर्वांग कान्ति उज्ज्वल थी।
किया विभीषण का आलिंगन मणिकुण्डल ने सत्वर।
हर्षित हुआ धर्म भरती पर कह जय-जय लंकेश्वर।
प्रखर सत्य के उर-अन्तर खुशियों का कमल खिला था।
मणिकुण्डल की निष्ठा को अभिनव सोपान मिला हो।
चन्दा ने चाँदनी सूर्य ने नव प्रकाश पाया हो।
पतझरों से ग्रस्त बाग में या बसन्त आया हो।
या उत्तप्त धरित्री पर बरसे हों आकर बादल।
तमसाविल गनर में या फिर हो प्रकाश की हलचल।
मणिकुण्डल की प्रखर कान्ति देदीप्यमान उन्नत थी।
धर्मधीर के सत्य-धर्म की प्रगति आज अविगत थी।
हर्ष-सिन्धु से तुंग-तरंगित वैभीषणि का मन था।
और विभीषण-मणिकुण्डल में मुदित धर्म-गुजन था।
लगा सुधाकर सुधा लुटाने पावन धर्म-विजय पर।
मधुर गीत-चाँदनी गा उठी पुलके धरती-अम्बर।
रजनी देवी ने तारक-हीरक थे खूब लुटाये।
बिखरे हुए रत्न से नभ के अंग-अंग पर छाये।
गन्धवाह की सुरभित लहरें लहर उठीं थी तट पर।
सकल सुरों ने पुष्प वृष्टि की धर्म-धीर उद्भट पर।
दिग्पालों ने यशोगान गाया श्री मणिकुण्डल का।
गूँज उठा गुणगान चतुर्दिक धर्म ज्योति उज्ज्वल का।
किन्तु आज धरती पर कोई ऐसा व्रती नहीं है।
धर्मधीर, मर्यादाओं से पूजित यती नहीं है।
ओढ़ धर्म आवरण ठग रहा है अधर्म जन-जन को।
सिसक रहा है धर्म किस तरह धीर धराये मन को।
हाय! धर्म का ताना-बाना शिथिल हुआ जाता है।
देख-देख यह दशा भारती का मन अकुलाता है।
दृग विहीन है सत्य तड़पता युग-गंगा के तट पर।
किन्तु न अरते धर्म-विभीषण लिए सजीवनि सत्वर।
सत्य-शिथिल हो चला प्रबल है आज झूठ की सत्ता।
धर्म-वृक्ष में नहीं हरा है कहीं आचरण-पत्ता।
द्वेष कपट-छल-ईष्र्या का कुटुम्ब उन्नत है।
सहज प्रेम रस गंगा की अवशोषण प्रगति सतत है।
रुग्ण हो गया ज्ञान पतन से छाती दरक रही है।
लुटी-लुटी-सी भक्ति आज शब्दों में विखल रही है।
रहती थी जो उर-मंदिर में मरुवासिनी हुई है।
भक्ति भावना रमी रमा में सुविलासिनी हुई है।
किन्तु काल की प्रखर धार में सब कुछ बह जाता है।
छट जाता पतझार एक दिन फिर बसन्त आता है।