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विमर्श / अनिल गंगल

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तय तो यही हुआ था
कि लोकतन्त्र में किसी भी विवादित मुद्दे का समाधान
आरोप-प्रत्यारोप से नहीं
सिर्फ़ विमर्श से ही होगा
चीख़-चीख़ कर कहता था यही
इस गणतन्त्र का संविधान
जिसका अर्थ शायद यह होता था
कि विमर्श होगा
मगर सीखनी होगी कही गई हर बात पर
सिर हिलाने कि कला
जिसमें असहमति की कोई गुंजाईश नहीं होगी
बोले गए हर सफ़ेद झूठ पर कहना होगा —
हाँ हाँ हाँ हाँ
विमर्श के लिए
बिछाए जाएँगे आपके वास्ते लाल गलीचे
विमर्श के दौर जब आप हमारे मुँह पर
हमें ही दे रहे होंगे चुन-चुन कर गालियाँ
तो हम कहेंगे —
यही तो है इस लोकतन्त्र की दुर्लभ उदात्तता
जिसमें सामर्थ्य है पचाने की हर क़िस्म की आलोचना
मगर चूँकि फ़िलहाल सत्ता में हम हैं
इसलिए सिर्फ़ और सिर्फ़ हम ही जानते हैं
संविधान में दिए गए अनुच्छेदों के सही-सही मानी
आओ,
विमर्श आरम्भ होने से पहले करते हैं एक समझौता
विमर्श के बहाने से
हम दोनों ही मिल कर बिखेर दें उसके एक-एक वर्क़ को
चींथ कर हवा में
करते हुए संविधान को मटियामेट
विमर्श के अन्त में ज़ारी करनी होगी सिर्फ़ एक विज्ञप्ति —
'बेहद सफल रहा विमर्श'
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