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विमर्श / रंजना जायसवाल

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सिर्फ देह नहीं
पर देह भी है स्त्री,
देह में हैं इच्छाएँ, जो धड़कती हैं
रोम-रोम में आवेग भरती हैं
इच्छाएँ, जो नाथी गयीं
दबाई गयीं पूरी शक्ति से
कि नदी सैलाब न बने
ढाए न कूल-किनारे।

कभी-कभी स्त्री इच्छाओं के पीछे
निकल जाती है दूर
माया, ठगिनी, वेश्या
और बिगड़ी कहलाती है
बिगड़ी स्त्रियों की दास्तान से भरी पड़ी हैं किताबें
दूसरी स्त्रियों को सलाह दी जाती है
दूरी बरतने को जिनसे।
देह से विदेह
विदेह से देह होना
स्त्री की नहीं
पुरुष की देह पर निर्भर रहा
कि कब कैसे कितनी देह बने स्त्री।
वे कहते हैं स्वतन्त्र स्त्री
बना देती है घर को जंगल
जहाँ दीवारें, चौखट, दरवाजे नहीं होते
दफ़न होती हैं जहाँ इच्छाएँ
और घर में
नहीं रह सकते
दो वनैले एक साथ।