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विरल छन्द-शिल्पी महाकवि ‘मधुप’ जी / सारस्वत मोहन 'मनीषी'

विरल छन्द-शिल्पी, अद्भूत सूझ के धनी, सच्चे शब्द-साधक, निश्छल सरस्वती-आराधक, प्रदर्शन से कोसों दूर, विनम्रता की प्रतिमूर्ति, आत्म-गोपन के कायल, दयाभाव से भरपूर, क्षमाभाव के स्वर्ण-सिंदूर, सहयोग-सुधा पिलाने को सदैव तत्पर, अर्थ-शुचिता ओर संतोष के स्वामी, अडिग ईश्वर-विश्वासी, आत्मविश्वास के सुरभित आवास, परदुःख कातर, सच्चे-सुच्चे इन्सान और असीम अच्छाइयों के अकूत भण्डार, श्री महावीर प्रसाद जी ‘मधुप’ माँ सरस्वती के आँगन में लिखेऐसे शतदल रहे हैं, जिनकी सुगन्ध का सुगन्ध-स्रोत भी ऋणी है। वाणी में माधुर्य और होंठों पर मुस्कान लिए यह महाकवि अपने भिवानी प्रवास के दौरान काव्य-गोष्ठियों की जान और शान बना रहा है। बिना किसी भेदभाव के अच्छी रचना पर सराहना करना उनका प्रकृत स्वभाव था। अच्छे रचनाकार को शाबाशी देना वे अपना कर्त्तव्य समझते थे। बनावट उन्हें कभी नहीं भाई। स्वाभिमान और अंहकार का अंतर वे जानते थे। पाखण्ड के पक्षधर के कभी नहीं रहे। कथनी-करनी और रहनी-सहनी में ऐक्य उन्हें भीड़ में भी अलग दिखाता था। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ उनकी आत्मा का आईना था। संयम उनका आभूषण था। शिष्टता और शालीनता उनके अंग-संग रहते थे। हल्की बात तो उनके मुख से कभी निकलती ही नहीं थी। कम शब्दों में बड़ी बात कहना उन्हें आता था। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की निम्नांकित पंक्तियाँ उनके कार्यालय का शृंगार थीं-

‘‘कार्य-सिद्धि में धैर्य उचित है पर विलंब में जड़ता है।

अपने-आप नहीं कुछ होता, सब कुछ करना पड़ता है।।’’

किसी का दिल दुखाना उन्हें प्रिय नहीं था। घटिया हास-परिहास करते हुए उन्हें कभी नहीं देखा गया। किसी सभा, गोष्ठी या सम्मेलन मे मधुप जी का उपस्थित होना इस बात की आश्वस्ति था कि यहाँ स्तरहीन बातें हो सकती। पूरे कार्यक्रम में मधुप जी का प्रभा मण्डल अलग ही दीख पड़ता था।

यद्यपि स्कूल-कॉलेज की दृष्टि से वे डिग्रीधारी नहीं थे, तथापि बड़े-बड़े प्रोफ़ेसरों को पढ़ा सकने की योग्यता उन्हें कवच-कुण्डल रूप में सहज प्राप्त थी। चलते-फिरते व्याकरण और शब्दाकोश थे मधुप जी। तन्मय, तद्रूप, सहृदय, संवेदनशील तथा अत्यंत भावुकता उन्हें बच्चे की तरह निश्छल और निष्कपट बनाती थी। अंग्रेजी की एक कहावत है- ैजलसम पे जीम उंदण् अर्थात् शैली ही व्यक्तित्व है। जितना उनका हस्तलेख सुन्दर था, उतनी ही जड़ाऊ उनकी कविताएँ हैं। जिस प्रकार बछड़ा हज़ारों-लाखों गायों के बीच में भटककर भी अपनी माँ को अन्ततः ढूंढकर पयःपान का आनन्द पाता है उसी प्रकार असंख्य कवियों की रचनाओं के बीच मिला देने पर भी मधुप जी की कविताओं को अलग से पहचाना जा सकता है।

‘और कवि गढ़िया, नन्ददास जड़िया’ वाली उक्ति श्री मधुप जी पर पूरी तरह से चरितार्थ होती है। वे कविता लिखते नहीं अपितु कविता को जीते थे। काव्य-रचना के क्षणों में वे एक योगी की तरह समाधिस्थ हो जाते थे। कवितापाठ के समय वे स्वयं कवितामय होकर एक-एक अक्षर के साथ न्याय करते थे। मेरी ग़ज़ल का एक शेर गुरूवर पर कितना सटीक लगता है-

‘‘वही दिन-दिमागों पे छाता‘ मनीषी’,

ग़ज़ल बन गया जो ग़ज़ल गाते-गाते।’’

कविवर मधुप जी को कविता के संस्कार धर्मपरायण परिवार से मिले। इस हीरे को गरू रूप मंे तराशा कविवर केहरि कृपाण जी ने। कृपाणा जी के गुरूभाई थे सुप्रसिद्ध कवि श्री गयाप्रसाद शुक्ल ‘स्नेही’। दोनों मित्रों को गुरूरूप में नई दीप्ति और आभा प्रदान की, कवियों के सिरमौर और मात्रिक एंव वर्णिक छन्दों के सम्राट पं. नाथूराम शंकर शर्मा ने। गुरूवर मधुप जी इस पंरपरा का गुणगान करते वक्त अत्यंत भावुक हो उठते थे। अनेक संस्मरणों की शृंखला सहज ही उनकी वाणी से प्रस्फुटित होने लगती थी। इसी क्रम में गुरूदेव सुनाते थे गुरू-शिष्य की समस्यापूर्ति वाली प्रतियोगिता का संस्मरण। सीतापुर (उ.प्र.) काव्य की दृष्टि से बहुत उपजाऊ भूमि है। कृपाण जी ने भी अपनी कृपाणा की धार वही से पाई। शिष्य गयाप्रसाद शुक्ल सनेही ‘त्रिशूल’ की अभियक्ति और पुरस्कार प्राप्ति के अवसर पर गुरूणाम् गुरू पं. नाथूराम शंकर शर्मा ने एक दोहा सुनाया, जो इस प्रकार है-

‘‘क्या ‘शंकर कविता करै, क्या पावै उपहार।

इक्यावन तोले गयो, शंकर को हथियार।।’’

श्री महावीर प्रसाद ‘मधुप’ जी को वैश्य कॉलेज, भिवानी (हरि.) के हिन्दी प्राध्यापक मोहनलाल सारस्वत द्वारा गुरूरूप में पाना एक रोचक दुर्घटना फलस्वरूप हुआ। विस्तार से पूरा संस्मरण फिर कभी। हाँ, सारस्वत मोहन ‘मनीषी’ गुरूवर के प्रति आज भी रोम-रोम से ऋणी है, और आजीवन रहेगा। राष्ट्रकवि मैथिलिशरण गुप्त जी का दोहा गुरूवर के चरणों में संदर्भ में देना समीचीन लगता है-

‘‘करते तुलसीदास भी, कैसे मानस-नाद।

महावीर का यदि नहीं, मिलता कृपा-प्रसाद।।’’ आज मधुप जी होते तो उनकी प्रसन्नता का पारावार न रहता। उनके जीवनकाल में उनकी रचनाएँ पुस्तक रूप में नहीं आ पाईं, इस बात की सबको गहरी पीड़ा है। अब उनके तीनों सुयोग्य पुत्र सर्वश्री सुधाकर गुप्ता, कुसुमाकर गुप्ता और सतीश गुप्ता ने यह संकल्प लिया है कि पिता श्री का सारा अप्रकाशित साहित्य धीरे-धीरे प्रकाश में आ जाए। ‘माटी अपने देश की’ नामक काव्य-संग्रह उस संकल्प की पहली खेप है। पूरी सज-धज के साथ प्रकाशित यह संग्रह काव्य-रसिकों का कण्ठहार बनेगा, ऐसा विश्वास है। अंत में गुरूवर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक ताज़ा ग़ज़ल समर्पित करते हुए लेखनी को विराम देता हूँ-

जिस कोण से भी देखो, वरदान थे मधुप जी।

शुभ छन्द सम्पदा के सम्मान थे मधुप जी।


पावन नगर भिवानी था धन्य आपको पा;

जलते मरूस्थलों में उद्यान थे मधुप जी।


‘साहित्य सार संगम’, ‘बज़्मे-अदब’ को पाला;

केहरि कृपाण जी के हनुमान थे मधुप जी।


कैसे करूँ मै उपमित नन्हीं-सी इस कलम से;

हर शब्द ब्रह्म जिनका, रसखान थे मधुप जी।


आचार्य शुक्ल जैसे, डिग्री भले ही कम हो;

कविता विधा के अनुपम विद्वान थे मधुप जी।


दोहा भी मानता था, जिनकी क़लम का लोहा;

हरिगीतिका, सवैया की शान थे मधुप जी।


हर ग़ज़ल है जड़ाऊ, हर गीत है टिकाऊ;

उत्तम घनाक्षरी के भगवान थे मधुप जी।


थी नाव जब भँवर में, था डूबने ही वाला;

आकर मुझे उबारा, जलयान थे मधुप जी।


मुझको क़लम थमा दी, नादानियाँ जला दीं;

मोहन बना ‘मनीषी’, गुरूज्ञान थे मधुप जी।

-मानस संतान

सारस्वत मोहन ‘मनीषी’