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विरहणी धारा / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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फूलों को खिल जाने दो कुछ कलियों को मुस्काने दो,
अभी न छेड़ों राग वसन्ती मधुऋतु को आ जाने दो।

इतनी भी क्या जल्दी है प्रिय आये हो तो बैठो भी,
छवि की छटा प्राण में मेरे क्षणभर तो बस जाने दों।

नीरवते ! अब और न अपनी सत्ता का विस्तार करो,
अमराई में बैठे पिकी को वंशी मधुर बजाने दो।

मत हो व्याकुल ओ मेरे मन व्यथा कथा भी कह लेना
सजी बहारों की महफिल है मलयानिल को आने दो।

सद्भावों की मधुर चाँदनी टेर रही है द्वारे पर,
युग ! मेरे क्यों रोक रहे तुम उर अन्तर तक आने दो।

मावस के दिन बीत गये हैं पूनम की आशाओं में,
आज चन्द्रिका के निर्झर में मन मन्दिर धुल जाने दो।

और न कुछ भी पूछो प्यारे ! आहत मन के पंछी से
करूणा कलित हृदय वीणा को जीवन राग सुनाने दो।

अभिलाषा के दीप जले हैं जलने दो मत शान्त करो,
घोर निराशाओं के तम को क्षण भर तो छट जाने दो।

अश्रुधार में जीवन नौका मौन साधकर बैठो रे !
प्रिय की यादों में मनमाँझी गाता है तो गाने दो।

एक प्रेम के वशीभूत हो करता है सबकुछ अर्पण
दीपशिखा पर मन यदि जलता है जल जाने दो।

दीवारों मत हँसो खिड़कियों दरवाजों मत व्यंग्य करो,
धवल चाँदनी के महलों में दृग निर्झर बह आने दो।

परिर्वतन की इस बेला में अपना कोई बस न कहीं,
रूठे हुए प्राण के पंछी उड़ते हैं उड़ जाने दो।

बार बार कब मिला किसे है लाख प्रायस करे कोई,
देश धर्म पर यौवन का धन लुटता है लुट जाने दो।

बार बार कब मेले लगते ? बार बार कब आती ?
मनवता के लिए शीश यदि कटता है कट जाने दो।

मुझे न रोको पथ के पत्थर बार बार मत घात करो,
मैं हूँ दग्ध विरहिणी धारा सागर से मिल जाने दो।