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विरहिणी / रामनरेश त्रिपाठी

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बह री बयार प्राणनाथ को परस कर,
लग के हिए से कर विरह-दवागि बंद।
जाओ बरसाओ घन मेरी आँसुओं के बूँद
आँगने में प्रीतम के मेरी हो तपन मंद॥
मेरे प्राणप्यारे परदेश को पधारे, सुख
सारे हुए न्यारे पड़े प्राण पै दुखों के फंद।
जा री दीठ मिल प्राणनाथ की नजर से तू,
उदित हुआ है देख दूज को सुखद चंद॥