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विरह-निवेदन / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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नहीं खुल पाया तेरा द्वार;
कान में पड़ पाई न पुकार।
नहीं दया कर तूने देखी आकुल नयनों की जल-धार।
सुख हैं सुर-तरु-तले न पाते;
प्यासे सुर-सरि-तट से जाते।
होते सुधा-गेह से नाते;
हैं चकोर-सम आग चबाते।
शीतल नहीं हमें कर पाता मलय-समीर-सरस-संचार।
सरसित कुसुमाकर के होते;
मरु-सम हैं न विरसता खोते।
बहते सरस सुधा के सोते;
हैं जल-हीन मीन बन रोते।
नंदन-वन में नहीं सुनाती मानस-अभिनंदन-झंकार।
जलद-जाल है जल बरसाता;
चातक है दो बूँद न पाता।
मधु हो पादप-वृंद विधाता
है करील को क्यों कलपाता।
तरल-हृदय-तोयद क्यों भूला प्रीति-मत्त मोरों का प्यार।
कैसे रवि को कमल तजेगा;
अलि कुसुमावलि को न भजेगा।
मधु -निमित्ता क्यों तरु न सजेगा;
स्वर-विहीन क्यों वेणु बजेगा।
प्रेमिक जीव जिएगा कैसे तजे प्रेम-पय-पारावार।