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विरह-मिलन / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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साथ है कुछ देर का यह-तुम कहाँ फिर, मैं कहाँ फिर!
हम जगत् की डाल पर हैं हिल रहे दो पत्तियों से,
चाँदनी, ऊषा, पवन से नित्य पाले और पोसे;
जब चलंेगी आँधियाँ-तब, तुम कहाँ फिर, मैं कहाँ फिर!

आ मिले हैं आज दो जल-धार से बहते यहाँ हम,
और बहते जा रहे हैं-साथ रह दिन-रात, प्रियतम;
जब मिलेंगे सिन्धु-में तब, तुम कहाँ फिर, मैं कहाँ फिर!

आ मिले बहते हुए हम दो दिशा से आज पल भर,
सिन्धु में संयोगवश ज्यों क्षीण दो तिनके परस्पर;
एक यदि आई लहर तो- मैं कहाँ, फिर, तुम कहाँ फिर!

दो घड़ी का यह मिलन है, फिर बिरह की रात होगी,
और फिर इस जन्म की स्मृतियाँ मधुर अज्ञात होंगी;
तिमिर में खो जायेंगे जब-मैं कहाँ फिर, तुम कहाँ फिर!

साथ है कुछ देर का यह-तुम कहाँ फिर, मैं कहाँ फिर!