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विरह व्यथित मन साक़ी तत्क्षण / सुमित्रानंदन पंत

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विरह व्यथित मन, साक़ी, तत्क्षण
अधरामृत पी होता विस्मृत,
कलुषित अंतर रति से घुल कर
बनता पूत, सुरा समाधि स्थित!
शोक द्रवित होता आनंदित
मादक मदिराधर कर चुंबित,
उसे न सुख दुख, वह नित हँसमुख,
स्वर्ग फूल सा भू पर लुंठित!