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विरह / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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धरनी यहि जग जन्मिके, बाढी विरह न राम।
सो जिय जल कोा फेन है, बहे जाय बेकाम॥1॥

धरनी जो विरही भयो, बालमु विरह बियापु।
बिसरी सुधि बुधि बल घटो, सहज चढो तन तापु॥2॥

बकै विरहिनी बावरी, धरनी धरै न धीर।
ताला बेली तनि नवै, अमि अन्तर को पीर॥3॥

तनक तनक तन घटत है, जिय विह्वल बल हानि।
धरनी प्रभु वेगहिं मिल्यो, प्रीति पुरातन जानि॥4॥

चिन्तामणि! बिनु रावरे, करिये कोटि उपाय।
धरनी धीरज ना रहै, दीजै दर्शन आय॥5॥

धरनी भवन भयावनो, भजिगो भूख पियास।
निकट न आवै नींदरी, सुरति सनेही पास॥6॥

धरनी धनि ”पिया“ ”पिया“ रटै, अब कब मिलि हैं पीव।
तबका लैहो आय के, जब चलि जेहै जीव॥7॥

धरनी आशा दरस की, निकरत नाहीं प्रान।
अब न विलम्ब लगाइये, गुरूये कन्त सुजान॥8॥

धरनी विरहिनि बापुरी, बैठी ठाड़े आस।
जियै सो आशा मिलन की, पेरि रक्त अरु मास॥9॥

धरनी वेदन बिरह की, और न जानै भेद।
विरह व्यथा सो जानि है, जाहि करेजे छे॥10॥