भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विराग / दीनदयाल गिरि
Kavita Kosh से
एहो त्याग मृगेस तुम बिन यह तन बनराज ।
करत स्यार कामादि ह्वै स्वतन्त्र सिरताज ।।
ह्वै स्वतन्त्र सिरताज फिरत कूकत कै फूलै ।
किन गज्जत घननाद पराक्रम कित वह भूले ।।
बरनै दीनदयाल त्रास जौलों नहिं देही ।
तौलों नहिं ये कूर कढ़ैंगे हिय तें एहो ।। ५३।।