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विरूद्ध / अशोक कुमार पाण्डेय

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पता नहीं किस-किस के विरूद्ध
कौन सी रणभूमि में
निरन्तर कटते-कटाते संघर्ष रत
रोज लौट आते अपने शिविर में
श्रांत-क्लांत

रक्त के अनगिन निशान लिये
न जीत के उल्लास में मदमस्त
न हार के नैराष्य से संत्रस्त।

कोई आकस्मिक घटना नहीं है यह युद्ध
न आरम्भ हुआ था हमारे साथ
न हमारी ही किसी नियति के साथ हो जायेगा समाप्त
शिराओं में घुलमिलकर
दिनचर्या का कोई अपरिहार्य सा हिस्सा हो ज्यों
बिलकुल असली इन घावों के निशान
लहू बिल्कुल लहू की तरह - गर्म,लाल और गाढ़ा
हथियारों के बारे में नहीं कह सकता पूरे विश्वास से
इससे भी अधिक कठिन है
दोस्तों और दुश्मनो के बारे में कह पाना

अंधकार - गहरा और लिजलिजा अंधकार
मानो फट पड़ा हो सूर्य
और निरंतर विस्फोटों के स्फुलिंगों के
अल्पजीवी प्रकाश में कैसे पहचाने कोई चेहरे
बस यंत्रमानवों की तरह-प्रहार-प्रहार-प्रहार

कई बार तो ऐसा लगता है
कि अपने ही हथियारों से कट गिरा हो कोई अंग
अपना ही बारूद छा गया हो दृष्टिपटल पर
अपनी ही आवाज से फट गया हो कर्णपटल
अपना ही कोई स्वप्न भरभराकर गिर पड़ा हो कांधे पर
अपनी ही स्याही घुलमिल गयी हो लहू में
अपना ही कोई गीत बदल गया हो रणभेरी में

इस लिजलिजी अंधेरी दलदल में
अमीबा की तरह तैरते विचार
जितनी कोशिश करो पकड़ने की
उतने ही होते जाते दूर
और पांव है कि धंसता ही जा रहा है
गहरा - और गहरा- और गहरा

किस दिशा में जा रहा है यह समय रथ?
कौन इसका सारथी?
किस रंग की इसकी ध्वजा?

कुछ नहीं - कुछ भी नहीं दीखता स्पष्ट
हम स्वघोषित सेनानियों को
लड़ रहे हैं - बस लड़ रहे हैं अनवरत
नियतिबद्ध या कि शायद विकल्पहीन
"लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते खा़मोश
लड़ रहे हैं कि और कुछ सीखा नहीं
लड़ रहे हैं कि जी नहीं सकते लड़े बिन
लड़ रहे हैं कि मिली है जीत लड़कर ही अभी तक"
प्रश्न तो लेकिन यही है - जीत आखिर कौन सी है?