विरोधी ध्रुवों के बीच / प्रताप सहगल
जो इंसान हम कविता में बुनते हैं
उसी की तलाश हम सड़क पर करते हैं
जो आँखें हम कविता में रचते हैं
उन्हीं आँखों को हम गली के मुहाने पर कोई अनाम सत्य खोजनते हुए
देखना चाहते हैं
जो सपने हम गुफाओं में उकेरते हैं
उन्हें हम चिलचिलाती धूप में
जिं़दा रखना चाहते हैं
संबंधों की ऊष्मा का पानी
जो उड़ चुका है भाप बनकर
उसी की भागीरथी हम
जीवन में उतारना चाहते हैं
बर्तनों की असलियत पर
कलई चढ़ा-चढ़ाकर
एक चमक पालना चाहते हैं
पेड़ों की जड़ों में
स्वार्थ का तेज़ाब डाल-डालकर
उन्हें हरा रखना चाहते हैं
पर्वतों के पाँवों को रेत में बदलकर
करना चाहते हैं उन्हीं के ऊँचे शिखर
पोखरों में उतरकर
करते हैं समुद्र-मंथन
इन विरोधी धु्रवों के बीच
जो एक खुला मैदान है
वहीं हम/खेलने से हैं बचते
नहीं/कभी भी नहीं
ख़ुद को अपनी ही कसौटी पर कसते।