विलुप्त प्रजाति / निरुपमा सिन्हा
एक कूड़ेदान के पास
एक नाले पर आधी लटकी हुई
एक जिसके गर्दन पर लिपटी थी
(वही नाल जिसे आजकल सुरक्षित रखवाते हैं धनाढ्य... भविष्य में हो जाने वाली बीमारी लड़ने के लिए स्टेम सेल कहते हुए )
शायद ज्यादा कस दी गई थी
एक अस्पताल के ठीक पीछे
जहाँ सिरिंज के ढेर में लहुलुहान था पूरा शरीर
और
एक पार्क के कोने में
जहाँ बच्चे अक्सर छिप जाते थे कोई न खोज पाए कोई
जन्म से पहले की
स्थितियों में ही छीन लिया गया है
इनका जन्मना
सभी को बटोर ले जाती है
एक जर्जर सरकारी गाड़ी
शहर से बहुत दूर
उस टीले पर छोड़ आने के लिए
जहाँ गिद्धों का अतिक्रमण
बँटवारा कर चुका होता है
अपने अपने हिस्से का भोजन
पलटा जाता है ट्रक से
समाज का बहिष्कृत कुनबा .
खुली जगह की बदबूदार हवा उनमें भरती है
साँस के टूट जाने से पहले का सच
बतियाने लगती है
उनकी विक्षिप्त लाशें मृत होने की कथा
सरक आती है आसपास
सभी आकृतियाँ दर्द के दायरे में
सुनते सुनाते चीखती हैं
सारी लाशें झटके में
जर्जर लावारिश लारी
फिर
पलट जाती है
इस सदी की लाचारगी का मलबा
जिंदा समाज का सच
जो नींव बन रहा है
उन बहुमंजिली इमारतों का
जिसमें रचा जायेगा इतिहास
फिर जन्म होगा द्रोपदी का
जिसको निभाना होगा पाँच पुरुषों के साथ
या तो
भीड़ बढती जाएगी कौरवों की
जहाँ स्त्री होगी अल्पसंख्यक
पीड़ा!!
बलि में नहीं
घटती उस मानवीयता में है .
जहाँ मर जाना है
सृष्टि की जननी को
रचना करने से पहले ही!!