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विवशता / आभा पूर्वे
Kavita Kosh से
मैं जब कभी भी
खिलखिलाना चाहती हूँ
तब-तब मेरे होंठों पर
एक फीकी-सी मुस्कुराहट की जगह
धीरे-धीरे-धीरे
उभरने लगती है
एक विद्रुपता
जो होठों की हँसी चुराकर
खोंस देती है
होठों के नीचे
फिर एक शीतयुद्ध
चलता रहता है
दोनों के बीच
होंठ काँपते रहते हैं सिर्फ
न हँसी उभर पाती है
और न विद्रुपता
छोटा-सा
जीवन का इतिहास
अलिखित ही रह जाता है ।