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विवशता / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
हमें गिरेबां में झांकने का कहाँ मौका था
जब कमर में झाड़ू और गले में मटका था
बाल नाखून संग बढ़ते गये गुलामी में
मेरा दर्द इसके साथ कितना तन्हा था
मैं उठ न सका गिरके भरी जवानी में
कांपते हाथों में ठण्डा जो इतना बूढ़ा या
पगड़ी पे बाल, बाल की जगह खाल रहा
मेरा वजूद बस कुपोषण का चोला था
अस्तित्व की चट्टान खड़ी उनके रूबरू
इसी उदाहरण के साथ हमें जीना था
शाम के साथ उम्मीद की किरन ढली
‘बाग़ी’ ये मुद्दत से हमें ऐसे रौंदा था
हमारा इतिहास जलापा जो भी लिखा था
सभ्यता संस्कृति से विकसित जो उपजा था
दर्शन रण कौशल सद्भावना व समता
मिटाया अहिंसा को दर्शलन को फैलाया