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विवशता / महेन्द्र भटनागर
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दूर गगन से देख रहा शशि !
जगते-जगते बीत गयी है
- आधी रात,
पर, पूरी हो न सकी अस्फुट
- मन की बात,
भरे नयन से देख रहा शशि !
ऊपर से तो शांत दिखायी
- देते प्राण,
पर, भीतर क़ैद बड़ा यौवन
- का तूफ़ान,
विरह-जलन से देख रहा शशि !
सारे नभ में बिखरी पड़ती
- है मुसकान,
पर, कितना लाचार अधूरा
- है अरमान,
बोझिल तन से देख रहा शशि !