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विवश खड़ी मेरी छाया में / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

राज धर्म पर कभी कभी
दुख और क्रोध आता है,
हाय! निठुर पत्थ्र-सा
सब कुछ कैसे सह जाता है।

कभी-कभी ये नियम
दुखों के सागर बन जाते हैं,
यदपि हितैषी हैं जग के
फिर भी दुख पहुँचाते हैं।

इसी धर्म ने जनकसुता
को भी वनवास दिया था
निरपराध उस शान्तिमती
को कटु सन्त्रास दिया था।

जड़ जंगल को सौंप जानकी
राकर लखन गये थे,
राजधर्म से बँधे हुए
कर सब कुछ सहन गये थे।

इन्द्रजीत विजयी को मैंने
शिशु-सा, रोते देखा,
अश्रुधार में हाय। स्वयं को
स्वयं डुबोते देखा।

विलख रही थी माँ की ममता
किन्तु धर्म सम्मुख था,
चरम बिन्दु पर थी दुख यात्रा
मात्र न यह आमुख था।

लौट गये थे लखन
किन्तु धर्म की प्रतिमूर्ति हुए थे,
भायप भक्ति और राजाज्ञा
की प्रतिमूर्ति हुए थे।

वह त्रिलोकस्वामिनी जानकी
बेबस और विकल थी,
एकाकी निरूपाय नकट-
मरे चिन्तित अविरल थी।

देख दशा सीता की
आकुल-व्याकुल थे जड़-चेतन,
किन्तु क्या करें, कर न सके कुछ
संवेदना भरे मन।

देख जानकी को संकट में
यदपि हृदय भर आया,
किन्तु अभागा मैं पीड़ा को
तिलभर बाँट न पाया।

सीता से जागती ने मानो
मुख ही मोड़ लिया है,
हाय! जगन्माता कहकर
नाता ही तोड़ लिया है।

डूबा हुआ स्वार्थ में कण कण
यह जग प्रेमरहित है,
यही यहाँ की रीत
यहाँ सर्वोपरि अपना हित है।

जाने कैसे कहाँ
भाग्य का धागा टूट गया है?
लगता निठुर विधाता ही
नारी पर रूठ गया है।

धरती गगन और वन वीथी
द्रवित मौन अविचल है,
करूणा का आतिथ्य कर रहे,
सहज शान्त चलदल हैं।

सजते ही रह गये
न पाये सपने कभी पनपने,
विखर गये थं हाय!
आज भावी जीवन के सपने।

रघुकुल के कुलदीप
सहेजे हुए गर्भ में अपने,
विवश खड़ी मेरी छाया में
किसके कहे उलहने?

उर अन्तर की ज्वालाएँ
उठती हैं गिर जाती हैं?
खुद में अग्नि और
खुद में पानी हो तिर जाती हैं।

जब-जब आती याद
स्वयं ही हृदय पिघल जाता है
आता उभर दृश्य फिर से
हर पात सिहर जाता है।

तभी अचानक वाल्मीक ऋषि
वन पथ पर थे आये,
देख सिया को मान सहित
निज आश्रम पर ले आये।

रघुकुल तिलक वीर लवकुश ने
जन्म यहीं पर पाया
शस्त्र शास्त्र संस्कृति का
शिक्षक पूर्ण यहीं पर पाया।

आज, तेज, पौरूष, विवेक, बल
संचित कर काया मंे,
फूलों से सुकुमार कुवँर
खेले मेरी छाया में।

राजभोग से वंचित
शैशव बीता मारे आगे,
भाग्यवंत मैं कहूँ
कहूँ या उनको हाय! अभागे?

छीना महल भाग्य ने
देखो पर्ण कुटिर मिला है,
अरे भाग्य का कमल
कहाँ का देखो कहाँ खिला है?

मृग छौनों के झुण्ड
हंस-सारस के सहचर प्यारे,
कली-कली के फूल-फूल के
दोनों फूल दुलारे।

ऋषिमण्डल के प्राण
महामुनि वाल्मीक की आत्मा,
आश्रम के श्रंगार
पूर्ण कानन के ही परमात्मा।

धरे हुए मुनिवेश कुँवर
छोनों किशोर वय सुन्दर-
तेज पुंज, सुषमा निकुन्ज
सद्भाव सौम्यता के वर।

देख-देख मेरी भी बाछें
खिल जायरा करती थी
भाग्य देख जड़ता भी
मेरी इठलाया करती थी।

मुझे याद है अश्वमेध का
अश्व इधर आया था,
सजा धजा आश्रम कुमार
मण्डल को अति भाया था।

युद्ध चुनौती स्वर्ण पट्टिका
पढ़कर सभी डरे थे,
अवध राज्य का चिन्ह
देख सब इधर उधर बिखरे थे।

किन्तु वीर लवकुश का
क्षत्रिय रक्त नहीं रूक पाया,
कौशलेश की शक्ति
जानकर भी न रंच रूक पाया।

बाँध अश्व मुझसे
दोनों कटिबद्ध हो गये रण को,
अस्वीकार निवेदन कर हर
दिया निमन्त्रण रण को।

फिर क्या था कौशल की सेना
टूट पड़ी लवकुश पर,
किन्तु कुमारों के आगे
वह टिक न सकी थी क्षणभर।

व्यर्थ हो गया बल अपारा
दिग्विजयी रणधीरों का,
टूक-टूक हो गया सकलमद
कौशल के वीरों का।

जिनके प्रखर शरों से
लंका वीर विहीन हुई थी,
जिनकी पौरूष ध्वजा
स्वर्ग तक फहर अदीन हुई थी।

आज वही शुकुमार शरों से
घायल विकल पडे़ है,
मानों अहंकार के बिखरे
हुए पड़े टुकडे है।

दृश्य देख यह क्षण भर को
मैं भी आश्चर्य चकित था,
छाया में जो पली वीरता
उस पर अति गर्वित था।

कितना भी अभाव हो
फिर भी प्रतिभा रंग लाती है।
शक्ति, साधना से
उन्नत होती है यश पाती है

अन्धकार के सूत्र
सूर्य को बाँध नहीं पाते है,
बडे़-बडे़ अवरोध
मार्ग में आते ढ़ह जाते हैं।

देह नहीं छाया है प्रतिभा
नष्ट नहीं होती है,
स्नेह नहीं, वर्तिका नहीं
वह तो केवल ज्योति है।

अस्त्र-शस्त्र कब दीप शिखा
का खण्डन कर पाते हैं,
होते है उत्तप्त निकट
यदि कुछ क्षण को आते हैं।

दीपशिखा-प्रतिभा जगती में
वन्दनीय पावन है,
ज्योतिर्मय जीवन्त उसी से
वसुधा का जीवन है।

मैं हूँ वृक्ष, पूत प्रतिभाओं
का वन्दन करता हूँ,
अपनी छाया में अपनों को
अभिनन्दन करता हूँ