Last modified on 14 नवम्बर 2014, at 21:00

विवश जिन्दगी पल रही है! / राधेश्याम ‘प्रवासी’

घिरी ध्वंस से सर्जना है परिधि में -
मरण के, विवश जिन्दगी पल रही है !

जलाये गये दीप अगणित धरा पर
मगर यह अमा का अँधेरा वही है,
बदल हैं गये चित्र सब किन्तु फिर भी
अभी चित्रपट का चितेरा वही है,
बढ़े तुम मगर है गया छूट साहिल
इसी से तो मंजिल नहीं मिल रही है !

उपासक प्रकृति का चरम साधना कर
मनोयोग से भौतिकी पढ़ रहा है,
सहारा मिला जब मनुज का, दनुज अणु
महानाश की मूर्ति को गढ़ रहा है,
बहारें लुटी जा रही पतझरों में
वसन्ती हवा पर नहीं चल रही है !

किसी राहु ने चन्द्र को ग्रस लिया है
तरनि की प्रभा को तिमिर छल चुका है,
विहँसने न पाया सवेरा अभी था
उषा से प्रथम ही दिवस ढल चुका है,
इसी से सुनिर्माण की शान्ति सŸाा
टिकी एटमी शक्ति पर हिल रही है !

उपासक रुको पश्चिमी सुन्दरी के
नयन में गये डूब तुम होश खोकर,
अरे भ्रान्त राही चले हो किधर को
चकाचौंध में लीन मदहोश होकर,
तुम्हें पूरवीया प्रभाताी जगाती
नये जागरण की कली खिल रही !

मनुज खोजता चित्र में चेतना है,
मानवी खोजता चित्र में चेतना है,
रही मानवी सह विषम वेदना है,
धरा रो रही है मनुजता दुखी है
मगर हो रही चाँद की अर्चना है !

चाँद छू लेने की तेरी कल्पना साकार है,
शक्ति पर तेरी मुझे इतवार है,
है असम्भव कुछ नहीं तेरे लिये
आदमी बनना मगर दुश्वार है !