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विवश / नीरज दइया

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आंख में कुछ गिर जाए तो कोई शांत कहां रह पाता है, बस ऐसी ही हालत है मेरी.... मेरी देह में शब्द गिरते हैं और मैं विवश हो जाता हूं उन शब्दों को बाहर लाने के लिए।
मेरे भीतर पहले से ही शब्द हैं.... क्या आने वाले शब्द समाते नहीं भीतर या गिरता कुछ नहीं बस यह मेरा भ्रम है और भीतर के ही शब्द पराए लगने लगते हैं जिन्हें मैं निकाने का प्रयास करता हूं। भांति भांति के शब्द हैं मेरे भीतर.... कुछ कोमल, कुछ कठोर.....कुछ बर्फ जैसे ठंडे, कुछ अंगारों से धधकते हुए.....कुछ कांटेदार तो कुछ कपास ओढ़े हुए कि मुझे कहीं तकलीफ नहीं हो..... मां और पिता ने जो शब्द दिए- वे शब्द-बीज थे.....ऐसे खेत को अंतस में सजाए किसी शब्द-कोश-सा सहेजा है मैंने पर इसके लिए मेरे गुरुओं को वंदन कहता हूं।
खेत है भीतर तो रेत-पानी भी है और लगता है कभी-कभी भीतर शब्द-सागर है जिसमें लहरें उठती हैं, शब्द किसी पत्थर के समान टकराते हैं कुछ बाहर आने को छटपटाते हैं यह सब असहनीय है किंतु इस लाइलाज बीमारी मैं एक एक शब्द को बाहर निकाने का प्रयास करता हूं.... पर हर बार सफल नहीं होता....अविकसित भ्रूण-से मुझसे अलग होते वे शब्द... फिर इस प्रसव-वेदना में कभी नहीं लिखने और लिखना ही छोड़ देने का विचार ....
बार-बार विवश मैं खोज-खोज कर भीतर से शब्दों को बाहर निकालता हूं...... एक के बाद एक... साथ सजाता हूं और अंतत: कविता होती है।