भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विवश / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
पेड़ की टुनगी से अभी-अभी उड़ा पंछी
आँखों के जल में उठी हिलोर
मन के अमरूद में उतरा पृथ्वी का स्वाद
इसी पेड़ के नीचे तो छाँटता रहा गेहूँ से जौ
उस शाम थकान की नोक पर खसा था इसी चिडि़या का खोंता
कंधे पर पंछी भी रहा अचीन्हा,
मैं अंधड़ की आँत में फँसा पियराया पत्ता
सँवारने थे वसंत के अयाल
पतझरों के पत्तों के साथ बजना था
बदलती ऋतुओं से थे सवालात
प्रश्नो में उतरता सृष्टि का दूध
मगर रेत के टीले के पीछे हुआ जन्म
मुट्ठी-मुट्ठी धर रहा हूँ मरुत्थल में ।