भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विवाह के पांचवे वर्ष में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विवाह के पांचवे वर्ष में
यौवन का निविड़ स्पर्श
गोपन रहस्य पूर्ण
परिणत रख पुंज अन्तर ही अन्तर में
पुष्प की मंजरी से फल के स्तवक में
वृन्त से त्वक में
सुवर्ण विभा में कर देता व्याप्त हैं
संवृत सुमन्द गन्ध अतिथि को घर में बुला लाती है।
संयत शोभा
पथिक के नयन लुभाती हैं।
पाँच वर्ष की विकसित वसन्त की माधवी मंजरी ने
भर दी सुधा मिलन के स्वर्ण पात्र में;
मधु संचय के बाद
मधुप को कर दिया मुखर है।
शान्त आनन्द के आमंत्रण ने
बिछा दिया आसन रवाहूत अनाहूत जनों को।
विवाह के प्रथम वर्ष में
दिग-दिगन्तर में
शहाना रागिनी में बजी थी बाँसुरी,
उठी थी कल्लोलित हँसी भी -
आज स्मित हास्य खिल उठा प्रभात के मुँह पर
नीरव कौतुक से।
बाँसुरी बज रही कनाड़ा की सुगभीर तान में
सप्तर्षि ध्यान के आह्यन में।
पाँच वर्ष के पुष्पित विकसित सुख स्वप्नों ने
पूर्णता का स्वर्ग मानो ला दिया संसार में।
पंचम वसन्त राग आरम्भ में बज उठा था,
सुर और ताल में वह पूर्ण हो उठा आज;
पुष्पित अरण्य पथ पर प्रति पदक्षेप में
नूपुर मंे बजता है वसन्त राग आज।

‘उदयन’
प्रभात: 25 अप्रेल, 1941