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विशिष्ट / कीर्तिनारायण मिश्र
Kavita Kosh से
हम भीड़मे हेरा गेल छी
हमर कथ्य-अकथ्य क्यो नहि सुनि पबैत अछि।
बुझना जाइछ
आत्म-उद्घोषणाकेर युग
व्यतीत भ’ चुकल अछि
आ’ जीबाक लेल
मात्र श्रोता बनि जिउनाइ आवश्यक।
विशिष्ट कहएबाक
अपन महत्वाकांक्षाकेर दाह-संस्कार करब उचित
किऐक तँ
भीड़, भीड़ थिकै
ओकरा लेल
विशिष्ट आ अदनामे कोनो अन्तर नहि।
ओतय तँ केवल चीत्कार
अनेकानेक कण्ठ-स्वर
रूदन-हास्य समाहार।
ओतय स्वरक विशिष्टता
कोलाहलक समुद्रमे विलीन भ’ जाइत छैक
प्रलयकेर बादक शान्ति जकाँ
प्रत्येक हेराएल चीन्हि लेल जाइत अछि।