विशेषाधिकार / महेश चंद्र द्विवेदी
जब हमने स्वतन्त्रता संग्राम
में भाग लिया था,
सबको समानाधिकार का
सपना जिया था
अपना स्वेद और रक्त
स्वाहा किया था
परतन्त्रता की बेड़ियों को
काट दिया था ।
फिर समाप्त किए थे सभी विशेषाधिकार,
नहीं रखे थे राजे, महराजे और ज़मींदार.
पर पता नहीं क्या था
विधाता का विधान?
ऐसे हुआ व्याख्यायित
हमारा संविधान,
कि या तो किसी के
होते हैं विशेषाधिकार,
नहीं तो होता है वह आदमी
साधारण, बेकार ।
जिसकी जब चली है- शब्द के अर्थ मोड़ दिये हैं,
असमर्थ को छोड़ सबने विशेषाधिकार ओढ़ लिये हैं ।
यहां के प्रशासक
अपने को शासक समझते हैं,
और शासक उन्हें
स्वयं के स्वार्थ-साधक समझते हैं ।
देश के सभी लाभदायक पद
इन प्रशासकों हेतु सुरक्षित हैं
हर शासकीय सुविधा लूटने का
अधिकार इनको आरक्षित है ।
स्वच्छंद हैं और दूसरे विभागों पर कब्ज़ा जमाते हैं
शासकों को मुट्ठी में रख स्वहित के आदेश करवाते हैं ।
जनसेवकों को विधान भवन में
गरियाने और जुतियाने का अधिकार है,
गुंडों की सहायता से
अपने मत डलवाने का अधिकार है,
स्वयं त्रसित कर
पुलिस सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार है,
अपने वेतन और भत्ता
मनमाना बढ़ाने का अधिकार है ।
कुछ करोड़ रुपये में
बिक जाने का अधिकार है ।
साधारण जनता साधारण अधिकारों से
वंचित है,
जनसाधारण का जान-माल
चोरों-डाकुओं हेतु सुरक्षित है;
उनका मान-सम्मान
गुन्डों-बलात्कारियों की कृपा से अरक्षित है,
योग्य की नौकरी जाति के नाम पर
अयोग्य को आरक्षित है,
विशेषाधिकार-भोगी नागरिक विशेष हैं-
शेष जनता भुक्त है,
जनसाधारण तो बस
लतियाये जाने के अधिकार से युक्त है ।