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|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले
|संग्रह=लकड़बग्घा हँस रहा है / चन्द्रकान्त देवताले
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<poem>
अकेला भटकता हुआ मैं
रेत और समुन्दर के बीच
सिर्फ़ पत्थरों के संगीत को सुनते हुए

शताब्दियों का अतीत
और उतनी ही स्मृतियाँ

एक पत्थर का हाथी मेरे आगे
एक पत्थर का शेर मेरे पीछे
मैं माँस का धड़कता हुआ
एक छोटा सा फूल इस तपती हुई
रेत पर

मेरे होंठों पर
समुद्र का खारा स्वाद
मेरी त्वचा पर धूप का गुनगुना हाथ
और मेरी जेब में कुछ पत्थर हैं
जो समुद्र ने दिए मुझे
तुम्हारे लिए।
</poem>