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नीचे देखते हुए चलना / अजेय

116 bytes added, 05:46, 25 दिसम्बर 2010
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=अजेय|संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<poem>सब से ज़्यादा मज़ा है
नीचे देखते हुए चलने में
और नीचे गिरी हुई हर सुन्दर चीज़ को सुन्दर कहने में
आज मैं माफ कर देना चाहता हूँ
उन ख्वाहिशों ख़्वाहिशों को
जो लगभग दनदनाती हुई चली आईं थीं
मेरी ज़िन्दगी में
और् नीचे देखते हुए चलना चाहता हूँ सच्चे मन से
आखिरकार आख़िरकार उबर ही जाऊँगा नीचे देखते -देखते उस खुशफहमी ख़ुशफ़हमी से
कि दुनिया वही है जो मेरे सामने है --
खूबसूरत ख़ूबसूरत औरतें , बढ़िया शराब , चकाचक गाड़ियाँ और तमाम खुशनुमा ख़ुशनुमा चीज़ें
जिनके लिए एक हसरत बनी रहती है भीतर
एक दिन मानने लग जाऊँगा नीचे देखते -देखते
कि एक संसार है
बेतरह रौन्द दी गई धूल भरी लीकों का
कीड़ों और घास -पत्तियों के साथ
देखने लग जाऊँगा
नीचे देखते -देखते एक दिन
अब तक अनदेखे रह गए
मेरे अपने ही घिसे हुए चप्पल और पाँयचों के दाग़
एक भूखी ठाँठ गाय की थूथन
एक काली लड़की की खरोंच वाली उंगलियाँ उँगलियाँ
वहाँ मिट्टी में गरक हो गई
कुछ फिर से काम आने वाली चीज़ें खोजती हुई --
ठीक ऐसा ही कोई दिन होगा
नीचे देखते -देखते जब चुपके से प्रवेश कर जाऊँगा उन यादों में
जब मैं भी वहाँ नीचे ही था कहीं
बहुत नीचे ,
और बेहद छोटा , बच्चा -सा
बड़ा छटपटाता यहाँ ऊपर पहुँचने के लिए
और समझने लग जाऊँगा कि अच्छा किया
जो तय कर लिया वक़्त रहते
नीचे देखते हुए चलना .
 
</poem>
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